है चाह मेरी कि तुम्हें पा लूं ,
फ़िर रुक जाता हूं जमानें के डर से
हर क्षण उठता है तूफ़ान मेरे अन्तर्मन में,
जो चाहता है तोड़ना इस
परंपरा को!
जो चाहता है छोड़ना सुंदर कविता के
अंतरा को!!
फ़िर भी तुम घबराना मत
मैं इस चेतन मन को संतुलित कर लूंगा,
विछोह के दर्द को मैं उन्मूलित कर लूंगा,
एक टीस बनकर रह जाओगे आप
जो हमेशा स्मरण कराएगी मुझे,
बस जीवित रखूंगा उन सकारत्मक यादों को,
फ़िर भी मैं रह लूंगा आपके बगैर क्यूंकि
उन बीते हुए बातों को याद कर जो हम दोनों ने किया था,
जिसमें साथ जीनें मरनें की जो कसमें खाईं थीं,
पता था अंजाम क्या होगा?
फ़िर भी इस रिश्ते को हम दोनों ने पूरी ईमानदारी से निभाई थी,
सूर्य का ढलना मुझे कभी कभी साहस से भर देता है जो
हमेशा बताता है इस जीवन के चक्र को कि
एक केंद्र बिंदु है जिसपे मिलन लिखा हुआ है,
जिसको महसूस मात्र मन प्रफुल्लित हो उठता है,
सुबह इंतजार करता है शाम का
और शाम इंतजार करता है सुबह का,
इन दोनों को कभी अलग नहीं किया जा सकता है।
ये एक दूसरे के पूरक हैं,
एक के बिना दूसरा अधूरा है तो दूसरे के बिना पहला।
एक को दूसरे के प्रति ये प्रेम देखकर आत्मीय ख़ुशी की अनुभूति होती है,
पता है उन्हें भी की एकसाथ मिलना संभव नहीं है
फ़िर भी! आशाएं हैं जो उनके विश्वास को नहीं तोड़ती।
इन्हीं आशाओं में मैं जिनें की कोशिश करूंगा और?
और उस केंद्र बिंदु को तलाशने कि हर सम्भव प्रयास करूंगा।।
"अंम्बुज मिश्र"
©ambuj mishra
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