मेरे मुकद्दर में गमों के सैलाब काफ़ी है ना जाने और | हिंदी शायरी

"मेरे मुकद्दर में गमों के सैलाब काफ़ी है ना जाने और कितने आसुओं के हिसाब बाकी है जहां से शुरू हुआ था वहीं पर पहुंच गया हूं मैं ना जाने और कितने उजारों से दो-चार होना बाकी है डरता हूं कि हमसाये कहीं चले ना जाए छोड़कर ना जाने और कितनी दहशतों से हलाकान होना बाकी है अभी खत्म कहां हुए हैं सितम सितमगारों के ना जाने और कितने इम्तहानों से बेज़ार होना बाकी है ©The_sourabh_baba"

 मेरे मुकद्दर में गमों के सैलाब काफ़ी है
ना जाने और कितने आसुओं के हिसाब बाकी है

जहां से शुरू हुआ था वहीं पर पहुंच गया हूं मैं
ना जाने और कितने उजारों से दो-चार होना बाकी है

डरता हूं कि हमसाये कहीं चले ना जाए छोड़कर
ना जाने और कितनी दहशतों से हलाकान होना बाकी है

अभी खत्म कहां हुए हैं सितम सितमगारों के
ना जाने और कितने इम्तहानों से बेज़ार होना बाकी है

©The_sourabh_baba

मेरे मुकद्दर में गमों के सैलाब काफ़ी है ना जाने और कितने आसुओं के हिसाब बाकी है जहां से शुरू हुआ था वहीं पर पहुंच गया हूं मैं ना जाने और कितने उजारों से दो-चार होना बाकी है डरता हूं कि हमसाये कहीं चले ना जाए छोड़कर ना जाने और कितनी दहशतों से हलाकान होना बाकी है अभी खत्म कहां हुए हैं सितम सितमगारों के ना जाने और कितने इम्तहानों से बेज़ार होना बाकी है ©The_sourabh_baba

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