न शाम आकर सुकून देती है मुझको यहाँ की,  न सुबह को | हिंदी Poetry

"न शाम आकर सुकून देती है मुझको यहाँ की,  न सुबह को शहर में वो दिलक़शी दिखती है,  ख़्वाहिशों पर क़हर है हर पहर इस मुकाम का, मुझे तो धूप का धुंध से हार जाना अच्छा लगता है,  मुझे वो बद-मिज़ाज शहर पुराना अच्छा लगता है।  नीरस है यहाँ के मौसम की बेतरतीब सी फ़ितरत,  रात से घने कोहरे में डूब जाना अच्छा लगता है,  अजनबी इस शहर की हवा न दे पाती वो सिहरन,  मुझे जिस सर्द में कंपकंपाना अच्छा लगता है,  मुझे वो बद-मिज़ाज शहर पुराना अच्छा लगता है। ©Rakesh Lalit"

 न शाम आकर सुकून देती है मुझको यहाँ की, 

न सुबह को शहर में वो दिलक़शी दिखती है, 

ख़्वाहिशों पर क़हर है हर पहर इस मुकाम का,

मुझे तो धूप का धुंध से हार जाना अच्छा लगता है, 

मुझे वो बद-मिज़ाज शहर पुराना अच्छा लगता है। 


नीरस है यहाँ के मौसम की बेतरतीब सी फ़ितरत, 

रात से घने कोहरे में डूब जाना अच्छा लगता है, 

अजनबी इस शहर की हवा न दे पाती वो सिहरन, 

मुझे जिस सर्द में कंपकंपाना अच्छा लगता है, 

मुझे वो बद-मिज़ाज शहर पुराना अच्छा लगता है।

©Rakesh Lalit

न शाम आकर सुकून देती है मुझको यहाँ की,  न सुबह को शहर में वो दिलक़शी दिखती है,  ख़्वाहिशों पर क़हर है हर पहर इस मुकाम का, मुझे तो धूप का धुंध से हार जाना अच्छा लगता है,  मुझे वो बद-मिज़ाज शहर पुराना अच्छा लगता है।  नीरस है यहाँ के मौसम की बेतरतीब सी फ़ितरत,  रात से घने कोहरे में डूब जाना अच्छा लगता है,  अजनबी इस शहर की हवा न दे पाती वो सिहरन,  मुझे जिस सर्द में कंपकंपाना अच्छा लगता है,  मुझे वो बद-मिज़ाज शहर पुराना अच्छा लगता है। ©Rakesh Lalit

#सर्दी

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