White ख्वाहिशों की पतंग से  लिपटकर रोता था  मैं . | हिं

"White ख्वाहिशों की पतंग से  लिपटकर रोता था  मैं . रहती थी  ख्वाहिश सागर की . दो घूंट चखी  और  मिट गई  ख्वाहिश सागर की . अब लगता है  पहले अच्छा था . वक्त में लौट जाना  कहां हद में है आदमी की . यही तो जिद हैं आदमी की. ©Naveen Goswami "

White ख्वाहिशों की पतंग से  लिपटकर रोता था  मैं . रहती थी  ख्वाहिश सागर की . दो घूंट चखी  और  मिट गई  ख्वाहिश सागर की . अब लगता है  पहले अच्छा था . वक्त में लौट जाना  कहां हद में है आदमी की . यही तो जिद हैं आदमी की. ©Naveen Goswami

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