चलो हम एक निश्छल रिश्ता निभाते हैं शहरी दूरियों के

"चलो हम एक निश्छल रिश्ता निभाते हैं शहरी दूरियों के अफसोस को छोड़ दिलों की नज़दिकियों की खुशियां मनाते हैं न रस्म होगी कोई न रिवाज होगा न अपने होंगे साथ न समाज होगा आओ हम मन ही मन इक दूजे को अपनाते हैं इक निश्छल रिश्ता निभाते हैं कविता "

 चलो हम एक निश्छल रिश्ता निभाते हैं
शहरी दूरियों के अफसोस को छोड़
दिलों की नज़दिकियों की खुशियां मनाते हैं
न रस्म होगी कोई न रिवाज होगा
न अपने होंगे साथ न समाज होगा
आओ हम मन ही मन 
इक दूजे को अपनाते हैं 
इक निश्छल रिश्ता निभाते हैं

कविता

चलो हम एक निश्छल रिश्ता निभाते हैं शहरी दूरियों के अफसोस को छोड़ दिलों की नज़दिकियों की खुशियां मनाते हैं न रस्म होगी कोई न रिवाज होगा न अपने होंगे साथ न समाज होगा आओ हम मन ही मन इक दूजे को अपनाते हैं इक निश्छल रिश्ता निभाते हैं कविता

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