जीवन की आपाधापी में आख़िर अब पछताता हूँ।
इतने सारे रिश्ते हैं पर खुद को तन्हा पाता हूँ।
रिश्तों की लाशों पर चलके।
हमने खुद को पाया था।
घर फूंका हमने तब जाकर।
महल का सपना आया था।
सोंच रहा हूँ कल जो रुक कर।
थोड़ा ठहर गया होता।
आने वाला ये कल शायद।
यूँ ना जहर हुआ होता।
शोहरत की ये चमक है कैसी।
पाकर भी घबराता हूँ।
इतने सारे रिश्ते हैं पर खुद को तन्हा पाता हूँ।
©prajjval
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