धीरे–धीरे मोहन की मुरली, मेरे मन को मोहत है,
मंद–मंद मुस्कान अधर पे,मस्तक पे मोरपंख जो सोहत है।
ना बनना चाहूं राधा–मीरा, ना नृत्य करन की चाहत है,
बनू यशोदा माई श्याम की, जब कृष्ण बाल्य में होवत है।
खो जाऊं मैं पग घुंघरू में, जो छम–छम करके बाजत है,
मुंह में माखन, घुंघराली अलकें औ नयनो में भरी शरारत है।
गोदी लेके प्रेम करू मैं, जब कान्हा खेल में रोवत है,
जी भर के देखू नटखट को, जब भी झूले में सोवत है।
©SWARNIMA BAJPAI
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