""साइकिल की सवारी" कथा आलेख, द्रोण नगर, आज से 40 साल पहले, एक हरा भरा सब्जबाग शहर था। माना कि उस समय भी थिएटर पर सजे बड़े बड़े पोस्टर और रंगीन फिल्मी चेहरे किसी बड़ी सोसायटी के लोगो के चलन को दर्शाते थे। मन्दिर की सजावट भी उस समय कि माना कुछ कम नही रहती थी। पर थिएटर की शोभा फिर भी अनोखी दिखती थी। हम उस समय व्यकिशोर उम्र की दहलीज पर खड़े थे। और फिर भैया के साथ इस द्रोण नगरी में पढ़ने के लिये आये थे। तो महामना पाठको कही अधिक पौराणिकता कथा को किसी दूसरे लोक में न पहुँचा दे। ये द्रोण नगरी आपकी अपनी देवभूमि उत्तराखंड की वर्तमान राजधानी देहरादून ही थी। उस समय ये नगरी आज के वर्तमान देहरादून से बिल्कुल भिन्नता लिए हुए थी। उस समय की गलियां जैसे लोगो से बतियाती थी। खुड़बुडा मुहल्ले की गरखा त्रासदी की कहानी चाहे हमे उस समय ज्ञात न थी। और न अग्रेजो की गोरखा मिलेट्री के लाल द्वार की कथा से चाहे हमारा बालमन उस समय अनभिज्ञ था। नही जानते थे, कि अंग्रेजो की तर्ज पर चलने वाले इस शहर में देश के सैन्य अधिकारियों को जनने वाली राष्ट्रीय एकदमी है। पर इसकी निर्दोष गलियां, बहुत भली लगती थी। गुरु नानक एकेडमी, घन्टाधर, सब्जीमण्डी, और धक्के मारकर इंजन को मोड़ने वाला बड़ा सा लोहे का घेरा लिये रेलवे स्टेशन, मातावाले बाग में उल्टे दरख्तों से लटके चमगादड़, और बरबस राह की सजी दुकान पर कलर टीवी में दिखने वाले किरकेट के लोकप्रिय खिलाड़ी, मन को मोह सा लेते थे। सभी गलियां अपनी सी लगती, इतनी की आंख बंद कर पूरा देहरादून घूम आये। मुल्ल्ले के नुक्कड़ पर मीठे रस की बेकरी, के रस का स्वाद और चाय अब भी मुँह में पानी ले आते है। उस समय हम मित्र विनोद उनियाल के घर किराए में रहते थे। वो भी मेरा हम क्लास था। यूँ कहे कि इस कहानी के मुख्य किरदार भी उनको ही मानना चाहिये, क्योंकि साइकिल की सवारी की सलाह भी उन्होंने दी थी। फिर क्या था। अब तो रात दिन सोते जागते। उसी के सपने आते। तब नही जानते थे , कि सफलता का रहष्य तुलसी बाबा सालों पहले किताबो में लिखकर रख गए थे। कि, जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥ जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। वही हुआ पहले शुरुआत विनोद के घर की साइकिल से हुई। उसे तो कुछ कुछ जानकारी थी पर हम नही जानते थे कि किसने ये दो पहियों पर लोहे के डंडो को जोड़कर क्या खास मजेदार चीज रच डाली। विनोद हमे साथ लेकर कुछ कुछ घरों के बीच से एक सूखे नाले से लगे मैदान में ले आया,जो कुछ ढलवान दार जमीन का हिस्सा था। और प्रशिक्षण के लिये बिल्कुल सही जगह थी। जैसे तैसे, गद्दी पर बैठकर विनोद ने पीछे से रोक कर रखा फिर धीरे से ढलान पर साइकिल लुढ़का दी, फिर क्या जैसे पैरो में पंख लग गए थे। स्वप्न में जैसे हवा में तैर कर मन सात समुंदर पार कि दुनिया पल भर में घूम आता है। वही बिल्कुल वही अनुभव पहली बार मन मे जागा। लगभग 500 मीटर की दूरी कुछ क्षणों में तैरते हुये पार हो गई। और बाल मन मे उस सवारी के प्रति आकर्षण जग उठा। पास के घर से टैप पर एक मधुर संगीत बज रहा था। अब तो है, तुम से हर खुशी अपनी। तुम पर मरना है, जिंदगी अपनी।। जब हो गया तुमपे ये दिल दीवाना अब चाहे जो भी कहे हमको ज़माना कोई बनाये बातें चाहे अब जितनी ओ ओ अब तो है तुमसे ... तेरे प्यार में बदनाम दूर दूर हो गये तेरे साथ हम भी सजन, मश्हूर हो गये देखो कहाँ ले जाये, बेखुदी अपनी ओ ओ अब तो है तुमसे ... उस समय ये भी ज्ञात नही था कि फ़िल्म अभिमान संगीतकार सचिन देव बर्मन साहब और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का ये मधुर नगमा इस मन मे इतना गहरा उतर जाएगा। उधर गीत बजता इधर मेरा प्रशिक्षण, दोनो गहराते चले गए। अब में यदा कदा खुद ही सायकिल लेकर इस तरफ आने लगा, मेरी नजर अक्सर उस घर की तरफ जरूर उठ जाती, जहां के मधुर नगमे ने जिंदगी के शुरुवाती संघर्षशील प्रशिक्षण में मेरा संगीत मय साथ दिया। आज भी जैसे लोग राट्रीय गान को सुनकर उठ कर सम्मान देते है। वेसे ही इस गाने को सुन मेरे चलते कदमो में ब्रेक लग जाते है। एक मर्तबा एक बर्तन वाले को गिराने के बाद में एक कुशल चालक बन गया था। एक दिन विनोद के घर में भी एक कैसेट पर ये गीत बजने लगा था। अब तो है, तुम से हर खुशी अपनी। तुम पर मरना है, जिंदगी अपानी। और फिर कभी में उस तरफ नही गया, न नगमा सुनने और न साइकिल सीखने ही। फिर कुछ दिन बाद भाई के साइकिल के साथ ही पिताजी ने मेरे लिये भी नई एटलस हरकुलिस साइकिल मंगवा दी थी। अब घर से स्कूल तक का सफर तेजी और आसानी से कटने लगा। अब तन्हा चलने वाले बाल मन ने भीड़ में चलना सीख लिया था। और फिर किशोरावस्था उसी भीड़ में गुम सी हो गई। और धूमिल सी नगमे की पंक्तियां मन मे गूंजती है। कोई बनाये बातें चाहे अब जितनी,,, ओ, अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी,,,, और फिर वर्तमान में टीवी पर चलने वाली फिल्म खत्म हो गई। जिसमें चलती पुरानी सायकिल को देख मन अतीत में गोते मार दूर निकल गया था। जब अतीत से वर्तमान में लौटा तो खुद को सतपुली निवास की बालकनी में पाया , जिसकी आम सड़क पर एक खुशियों की सवारी एम्बुलेंस सरपट दौड़ रही थी। लगता है आज फिर 130 करोड़ की संख्या में इजाफा करने उत्तराखंड की धरा पर कोई वोट बनकर आया था। जरूर उस बच्चे के परिवार में एक भाव जगा होगा। अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी। ,,, इति आलेख गौतम सिंह बिष्ट उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल। ©Gautam Bisht"
"साइकिल की सवारी" कथा आलेख, द्रोण नगर, आज से 40 साल पहले, एक हरा भरा सब्जबाग शहर था। माना कि उस समय भी थिएटर पर सजे बड़े बड़े पोस्टर और रंगीन फिल्मी चेहरे किसी बड़ी सोसायटी के लोगो के चलन को दर्शाते थे। मन्दिर की सजावट भी उस समय कि माना कुछ कम नही रहती थी। पर थिएटर की शोभा फिर भी अनोखी दिखती थी। हम उस समय व्यकिशोर उम्र की दहलीज पर खड़े थे। और फिर भैया के साथ इस द्रोण नगरी में पढ़ने के लिये आये थे। तो महामना पाठको कही अधिक पौराणिकता कथा को किसी दूसरे लोक में न पहुँचा दे। ये द्रोण नगरी आपकी अपनी देवभूमि उत्तराखंड की वर्तमान राजधानी देहरादून ही थी। उस समय ये नगरी आज के वर्तमान देहरादून से बिल्कुल भिन्नता लिए हुए थी। उस समय की गलियां जैसे लोगो से बतियाती थी। खुड़बुडा मुहल्ले की गरखा त्रासदी की कहानी चाहे हमे उस समय ज्ञात न थी। और न अग्रेजो की गोरखा मिलेट्री के लाल द्वार की कथा से चाहे हमारा बालमन उस समय अनभिज्ञ था। नही जानते थे, कि अंग्रेजो की तर्ज पर चलने वाले इस शहर में देश के सैन्य अधिकारियों को जनने वाली राष्ट्रीय एकदमी है। पर इसकी निर्दोष गलियां, बहुत भली लगती थी। गुरु नानक एकेडमी, घन्टाधर, सब्जीमण्डी, और धक्के मारकर इंजन को मोड़ने वाला बड़ा सा लोहे का घेरा लिये रेलवे स्टेशन, मातावाले बाग में उल्टे दरख्तों से लटके चमगादड़, और बरबस राह की सजी दुकान पर कलर टीवी में दिखने वाले किरकेट के लोकप्रिय खिलाड़ी, मन को मोह सा लेते थे। सभी गलियां अपनी सी लगती, इतनी की आंख बंद कर पूरा देहरादून घूम आये। मुल्ल्ले के नुक्कड़ पर मीठे रस की बेकरी, के रस का स्वाद और चाय अब भी मुँह में पानी ले आते है। उस समय हम मित्र विनोद उनियाल के घर किराए में रहते थे। वो भी मेरा हम क्लास था। यूँ कहे कि इस कहानी के मुख्य किरदार भी उनको ही मानना चाहिये, क्योंकि साइकिल की सवारी की सलाह भी उन्होंने दी थी। फिर क्या था। अब तो रात दिन सोते जागते। उसी के सपने आते। तब नही जानते थे , कि सफलता का रहष्य तुलसी बाबा सालों पहले किताबो में लिखकर रख गए थे। कि, जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥ जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। वही हुआ पहले शुरुआत विनोद के घर की साइकिल से हुई। उसे तो कुछ कुछ जानकारी थी पर हम नही जानते थे कि किसने ये दो पहियों पर लोहे के डंडो को जोड़कर क्या खास मजेदार चीज रच डाली। विनोद हमे साथ लेकर कुछ कुछ घरों के बीच से एक सूखे नाले से लगे मैदान में ले आया,जो कुछ ढलवान दार जमीन का हिस्सा था। और प्रशिक्षण के लिये बिल्कुल सही जगह थी। जैसे तैसे, गद्दी पर बैठकर विनोद ने पीछे से रोक कर रखा फिर धीरे से ढलान पर साइकिल लुढ़का दी, फिर क्या जैसे पैरो में पंख लग गए थे। स्वप्न में जैसे हवा में तैर कर मन सात समुंदर पार कि दुनिया पल भर में घूम आता है। वही बिल्कुल वही अनुभव पहली बार मन मे जागा। लगभग 500 मीटर की दूरी कुछ क्षणों में तैरते हुये पार हो गई। और बाल मन मे उस सवारी के प्रति आकर्षण जग उठा। पास के घर से टैप पर एक मधुर संगीत बज रहा था। अब तो है, तुम से हर खुशी अपनी। तुम पर मरना है, जिंदगी अपनी।। जब हो गया तुमपे ये दिल दीवाना अब चाहे जो भी कहे हमको ज़माना कोई बनाये बातें चाहे अब जितनी ओ ओ अब तो है तुमसे ... तेरे प्यार में बदनाम दूर दूर हो गये तेरे साथ हम भी सजन, मश्हूर हो गये देखो कहाँ ले जाये, बेखुदी अपनी ओ ओ अब तो है तुमसे ... उस समय ये भी ज्ञात नही था कि फ़िल्म अभिमान संगीतकार सचिन देव बर्मन साहब और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का ये मधुर नगमा इस मन मे इतना गहरा उतर जाएगा। उधर गीत बजता इधर मेरा प्रशिक्षण, दोनो गहराते चले गए। अब में यदा कदा खुद ही सायकिल लेकर इस तरफ आने लगा, मेरी नजर अक्सर उस घर की तरफ जरूर उठ जाती, जहां के मधुर नगमे ने जिंदगी के शुरुवाती संघर्षशील प्रशिक्षण में मेरा संगीत मय साथ दिया। आज भी जैसे लोग राट्रीय गान को सुनकर उठ कर सम्मान देते है। वेसे ही इस गाने को सुन मेरे चलते कदमो में ब्रेक लग जाते है। एक मर्तबा एक बर्तन वाले को गिराने के बाद में एक कुशल चालक बन गया था। एक दिन विनोद के घर में भी एक कैसेट पर ये गीत बजने लगा था। अब तो है, तुम से हर खुशी अपनी। तुम पर मरना है, जिंदगी अपानी। और फिर कभी में उस तरफ नही गया, न नगमा सुनने और न साइकिल सीखने ही। फिर कुछ दिन बाद भाई के साइकिल के साथ ही पिताजी ने मेरे लिये भी नई एटलस हरकुलिस साइकिल मंगवा दी थी। अब घर से स्कूल तक का सफर तेजी और आसानी से कटने लगा। अब तन्हा चलने वाले बाल मन ने भीड़ में चलना सीख लिया था। और फिर किशोरावस्था उसी भीड़ में गुम सी हो गई। और धूमिल सी नगमे की पंक्तियां मन मे गूंजती है। कोई बनाये बातें चाहे अब जितनी,,, ओ, अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी,,,, और फिर वर्तमान में टीवी पर चलने वाली फिल्म खत्म हो गई। जिसमें चलती पुरानी सायकिल को देख मन अतीत में गोते मार दूर निकल गया था। जब अतीत से वर्तमान में लौटा तो खुद को सतपुली निवास की बालकनी में पाया , जिसकी आम सड़क पर एक खुशियों की सवारी एम्बुलेंस सरपट दौड़ रही थी। लगता है आज फिर 130 करोड़ की संख्या में इजाफा करने उत्तराखंड की धरा पर कोई वोट बनकर आया था। जरूर उस बच्चे के परिवार में एक भाव जगा होगा। अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी। ,,, इति आलेख गौतम सिंह बिष्ट उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल। ©Gautam Bisht
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