Gautam Bisht

Gautam Bisht

जो सम्मान से कभी गर्वित नहीं होते अपमान से क्रोधित नहीं होते, और.क्रोधित होकर भी जो कभी कठोर नहीं बोलते, वास्तव में वे ही “श्रेष्ठ” होते हैं.

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"साइकिल की सवारी" कथा आलेख, द्रोण नगर, आज से 40 साल पहले, एक हरा भरा सब्जबाग शहर था। माना कि उस समय भी थिएटर पर सजे बड़े बड़े पोस्टर और रंगीन फिल्मी चेहरे किसी बड़ी सोसायटी के लोगो के चलन को दर्शाते थे। मन्दिर की सजावट भी उस समय कि माना कुछ कम नही रहती थी। पर थिएटर की शोभा फिर भी अनोखी दिखती थी। हम उस समय व्यकिशोर उम्र की दहलीज पर खड़े थे। और फिर भैया के साथ इस द्रोण नगरी में पढ़ने के लिये आये थे। तो महामना पाठको कही अधिक पौराणिकता कथा को किसी दूसरे लोक में न पहुँचा दे। ये द्रोण नगरी आपकी अपनी देवभूमि उत्तराखंड की वर्तमान राजधानी देहरादून ही थी। उस समय ये नगरी आज के वर्तमान देहरादून से बिल्कुल भिन्नता लिए हुए थी। उस समय की गलियां जैसे लोगो से बतियाती थी। खुड़बुडा मुहल्ले की गरखा त्रासदी की कहानी चाहे हमे उस समय ज्ञात न थी। और न अग्रेजो की गोरखा मिलेट्री के लाल द्वार की कथा से चाहे हमारा बालमन उस समय अनभिज्ञ था। नही जानते थे, कि अंग्रेजो की तर्ज पर चलने वाले इस शहर में देश के सैन्य अधिकारियों को जनने वाली राष्ट्रीय एकदमी है। पर इसकी निर्दोष गलियां, बहुत भली लगती थी। गुरु नानक एकेडमी, घन्टाधर, सब्जीमण्डी, और धक्के मारकर इंजन को मोड़ने वाला बड़ा सा लोहे का घेरा लिये रेलवे स्टेशन, मातावाले बाग में उल्टे दरख्तों से लटके चमगादड़, और बरबस राह की सजी दुकान पर कलर टीवी में दिखने वाले किरकेट के लोकप्रिय खिलाड़ी, मन को मोह सा लेते थे। सभी गलियां अपनी सी लगती, इतनी की आंख बंद कर पूरा देहरादून घूम आये। मुल्ल्ले के नुक्कड़ पर मीठे रस की बेकरी, के रस का स्वाद और चाय अब भी मुँह में पानी ले आते है। उस समय हम मित्र विनोद उनियाल के घर किराए में रहते थे। वो भी मेरा हम क्लास था। यूँ कहे कि इस कहानी के मुख्य किरदार भी उनको ही मानना चाहिये, क्योंकि साइकिल की सवारी की सलाह भी उन्होंने दी थी। फिर क्या था। अब तो रात दिन सोते जागते। उसी के सपने आते। तब नही जानते थे , कि सफलता का रहष्य तुलसी बाबा सालों पहले किताबो में लिखकर रख गए थे। कि, जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥ जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। वही हुआ पहले शुरुआत विनोद के घर की साइकिल से हुई। उसे तो कुछ कुछ जानकारी थी पर हम नही जानते थे कि किसने ये दो पहियों पर लोहे के डंडो को जोड़कर क्या खास मजेदार चीज रच डाली। विनोद हमे साथ लेकर कुछ कुछ घरों के बीच से एक सूखे नाले से लगे मैदान में ले आया,जो कुछ ढलवान दार जमीन का हिस्सा था। और प्रशिक्षण के लिये बिल्कुल सही जगह थी। जैसे तैसे, गद्दी पर बैठकर विनोद ने पीछे से रोक कर रखा फिर धीरे से ढलान पर साइकिल लुढ़का दी, फिर क्या जैसे पैरो में पंख लग गए थे। स्वप्न में जैसे हवा में तैर कर मन सात समुंदर पार कि दुनिया पल भर में घूम आता है। वही बिल्कुल वही अनुभव पहली बार मन मे जागा। लगभग 500 मीटर की दूरी कुछ क्षणों में तैरते हुये पार हो गई। और बाल मन मे उस सवारी के प्रति आकर्षण जग उठा। पास के घर से टैप पर एक मधुर संगीत बज रहा था। अब तो है, तुम से हर खुशी अपनी। तुम पर मरना है, जिंदगी अपनी।। जब हो गया तुमपे ये दिल दीवाना अब चाहे जो भी कहे हमको ज़माना कोई बनाये बातें चाहे अब जितनी ओ ओ अब तो है तुमसे ... तेरे प्यार में बदनाम दूर दूर हो गये तेरे साथ हम भी सजन, मश्हूर हो गये देखो कहाँ ले जाये, बेखुदी अपनी ओ ओ अब तो है तुमसे ... उस समय ये भी ज्ञात नही था कि फ़िल्म अभिमान संगीतकार सचिन देव बर्मन साहब और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का ये मधुर नगमा इस मन मे इतना गहरा उतर जाएगा। उधर गीत बजता इधर मेरा प्रशिक्षण, दोनो गहराते चले गए। अब में यदा कदा खुद ही सायकिल लेकर इस तरफ आने लगा, मेरी नजर अक्सर उस घर की तरफ जरूर उठ जाती, जहां के मधुर नगमे ने जिंदगी के शुरुवाती संघर्षशील प्रशिक्षण में मेरा संगीत मय साथ दिया। आज भी जैसे लोग राट्रीय गान को सुनकर उठ कर सम्मान देते है। वेसे ही इस गाने को सुन मेरे चलते कदमो में ब्रेक लग जाते है। एक मर्तबा एक बर्तन वाले को गिराने के बाद में एक कुशल चालक बन गया था। एक दिन विनोद के घर में भी एक कैसेट पर ये गीत बजने लगा था। अब तो है, तुम से हर खुशी अपनी। तुम पर मरना है, जिंदगी अपानी। और फिर कभी में उस तरफ नही गया, न नगमा सुनने और न साइकिल सीखने ही। फिर कुछ दिन बाद भाई के साइकिल के साथ ही पिताजी ने मेरे लिये भी नई एटलस हरकुलिस साइकिल मंगवा दी थी। अब घर से स्कूल तक का सफर तेजी और आसानी से कटने लगा। अब तन्हा चलने वाले बाल मन ने भीड़ में चलना सीख लिया था। और फिर किशोरावस्था उसी भीड़ में गुम सी हो गई। और धूमिल सी नगमे की पंक्तियां मन मे गूंजती है। कोई बनाये बातें चाहे अब जितनी,,, ओ, अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी,,,, और फिर वर्तमान में टीवी पर चलने वाली फिल्म खत्म हो गई। जिसमें चलती पुरानी सायकिल को देख मन अतीत में गोते मार दूर निकल गया था। जब अतीत से वर्तमान में लौटा तो खुद को सतपुली निवास की बालकनी में पाया , जिसकी आम सड़क पर एक खुशियों की सवारी एम्बुलेंस सरपट दौड़ रही थी। लगता है आज फिर 130 करोड़ की संख्या में इजाफा करने उत्तराखंड की धरा पर कोई वोट बनकर आया था। जरूर उस बच्चे के परिवार में एक भाव जगा होगा। अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी। ,,, इति आलेख गौतम सिंह बिष्ट उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल। ©Gautam Bisht

#ज़िन्दगी  "साइकिल की सवारी"
     कथा आलेख, 

     द्रोण नगर, आज से 40 साल पहले, एक हरा भरा सब्जबाग शहर था। माना कि उस समय भी थिएटर पर सजे बड़े बड़े पोस्टर और रंगीन फिल्मी चेहरे किसी बड़ी सोसायटी के लोगो के चलन को दर्शाते थे। मन्दिर की सजावट भी उस समय कि माना कुछ कम नही रहती थी। पर थिएटर की शोभा फिर भी अनोखी दिखती थी। हम उस समय व्यकिशोर उम्र की दहलीज पर खड़े थे। और फिर भैया के साथ इस द्रोण नगरी में पढ़ने के लिये आये थे। 
  तो महामना पाठको कही अधिक पौराणिकता कथा को किसी दूसरे लोक में न पहुँचा दे। ये द्रोण नगरी आपकी अपनी देवभूमि  उत्तराखंड की वर्तमान राजधानी देहरादून ही थी। 
उस समय ये नगरी आज के वर्तमान देहरादून से बिल्कुल भिन्नता लिए हुए थी। उस समय की गलियां जैसे लोगो से बतियाती थी। खुड़बुडा मुहल्ले की गरखा त्रासदी की कहानी चाहे हमे उस समय ज्ञात न थी। और न अग्रेजो की गोरखा मिलेट्री के लाल द्वार की कथा से चाहे हमारा बालमन उस समय अनभिज्ञ था। नही जानते थे, कि अंग्रेजो की तर्ज पर चलने वाले इस शहर में देश के सैन्य अधिकारियों को जनने वाली राष्ट्रीय एकदमी है। पर इसकी निर्दोष गलियां, बहुत भली लगती थी।  गुरु नानक एकेडमी, घन्टाधर, सब्जीमण्डी, और धक्के मारकर इंजन को मोड़ने वाला बड़ा सा लोहे का घेरा लिये  रेलवे स्टेशन, मातावाले बाग में उल्टे दरख्तों से लटके चमगादड़, और बरबस राह की सजी दुकान पर  कलर टीवी में दिखने वाले किरकेट के लोकप्रिय खिलाड़ी, मन को मोह सा लेते थे। सभी गलियां अपनी सी लगती, इतनी की आंख बंद कर पूरा देहरादून घूम आये। मुल्ल्ले के नुक्कड़ पर मीठे रस की बेकरी, के रस का स्वाद और चाय अब भी मुँह में पानी ले आते है। 
उस समय हम मित्र विनोद उनियाल के घर किराए में रहते थे। वो भी मेरा हम क्लास था। 
यूँ कहे कि इस कहानी के मुख्य किरदार भी उनको ही मानना चाहिये, क्योंकि साइकिल की सवारी की सलाह भी उन्होंने दी थी। फिर क्या था। अब तो रात दिन सोते जागते। उसी के सपने आते। तब नही जानते थे , कि सफलता का रहष्य तुलसी बाबा सालों पहले किताबो में लिखकर रख गए थे। 
कि,
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू।
 सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥ 
जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
वही हुआ पहले शुरुआत विनोद के घर की साइकिल से हुई। उसे तो कुछ कुछ जानकारी थी पर हम नही जानते थे कि किसने ये दो पहियों पर लोहे के डंडो को जोड़कर क्या खास मजेदार चीज रच डाली। विनोद हमे साथ लेकर कुछ कुछ घरों के बीच से एक सूखे नाले से लगे मैदान में ले आया,जो  कुछ ढलवान दार जमीन का हिस्सा था। 
और प्रशिक्षण के लिये बिल्कुल सही जगह थी। जैसे तैसे, गद्दी पर बैठकर विनोद ने पीछे से रोक कर रखा फिर धीरे से ढलान पर साइकिल लुढ़का दी, फिर क्या जैसे पैरो में पंख लग गए थे। स्वप्न में जैसे हवा में तैर कर मन सात समुंदर पार कि दुनिया पल भर में घूम आता है। वही बिल्कुल वही अनुभव पहली बार मन मे जागा। 
लगभग 500 मीटर की दूरी कुछ क्षणों में तैरते हुये पार हो गई। और बाल मन मे उस सवारी के प्रति आकर्षण जग उठा। पास के घर से टैप पर एक मधुर संगीत बज रहा था। 
अब तो है, तुम से हर खुशी अपनी।
तुम पर मरना है, जिंदगी अपनी।।
जब हो गया तुमपे ये दिल दीवाना
अब चाहे जो भी कहे हमको ज़माना
कोई बनाये बातें चाहे अब जितनी
ओ ओ अब तो है तुमसे   ...

तेरे प्यार में बदनाम दूर दूर हो गये
तेरे साथ हम भी सजन, मश्हूर हो गये
देखो कहाँ ले जाये, बेखुदी अपनी
ओ ओ अब तो है तुमसे   ...
उस समय ये भी ज्ञात नही था कि फ़िल्म अभिमान संगीतकार  सचिन देव बर्मन साहब और गीतकार  मजरूह सुल्तानपुरी का ये मधुर नगमा इस मन मे इतना गहरा उतर जाएगा। 
उधर गीत बजता इधर मेरा प्रशिक्षण, दोनो गहराते चले गए। अब में यदा कदा खुद ही सायकिल लेकर इस तरफ आने लगा, मेरी नजर अक्सर उस घर की तरफ जरूर उठ जाती, जहां के मधुर नगमे ने  जिंदगी के शुरुवाती संघर्षशील प्रशिक्षण में मेरा संगीत मय साथ दिया। 
आज भी जैसे लोग राट्रीय गान को सुनकर उठ कर सम्मान देते है। वेसे ही इस गाने को सुन मेरे चलते कदमो में ब्रेक लग जाते है।  
एक मर्तबा एक बर्तन वाले को गिराने के बाद में एक कुशल चालक बन गया था। 
एक दिन विनोद के घर में भी एक कैसेट पर ये गीत बजने लगा था। 
अब तो है, तुम से हर खुशी अपनी।
तुम पर मरना है, जिंदगी अपानी।

और फिर कभी में उस तरफ नही गया, न नगमा सुनने और न साइकिल सीखने ही। 
फिर कुछ दिन बाद भाई के साइकिल के साथ ही पिताजी ने मेरे लिये भी नई एटलस हरकुलिस साइकिल मंगवा दी थी। अब घर से स्कूल तक का सफर तेजी और आसानी से कटने लगा। अब तन्हा चलने वाले बाल मन ने भीड़ में चलना सीख लिया था। और फिर किशोरावस्था उसी भीड़ में गुम सी हो गई। 
और धूमिल सी नगमे की पंक्तियां मन मे गूंजती है। 
कोई बनाये बातें चाहे अब जितनी,,,
ओ, अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी,,,, 
 और फिर वर्तमान में  टीवी पर चलने वाली फिल्म खत्म हो गई। जिसमें चलती पुरानी सायकिल को देख मन अतीत में गोते मार दूर निकल गया था। 
जब अतीत से वर्तमान में लौटा तो खुद को सतपुली निवास की बालकनी में पाया , जिसकी आम सड़क पर एक खुशियों की सवारी एम्बुलेंस सरपट दौड़ रही थी। लगता है आज फिर 130 करोड़ की संख्या में इजाफा करने उत्तराखंड की धरा पर कोई वोट बनकर आया था। 
जरूर उस बच्चे के परिवार में एक भाव जगा होगा।
अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी। ,,,
                                    इति
                                   आलेख 
                              गौतम सिंह बिष्ट 
                            उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल।

©Gautam Bisht

उत्तराखंड#

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#विचार

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#ज़िन्दगी

उत्तरखण्डी #

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#उत्तराखंड #विचार  दुनिया के लोग तुम्हे अच्छा 
मानते है,तुम्हारा बड़ा यश
 हो गया है, इससे ये 
मत मान बैठो कि तुम वास्तव में अच्छे हो गए हो। 
अच्छे तुम तब होओगे, जब
 तुम्हारा मन निर्मल होगा। मन मे कुविचारों 
और कुभावो  का सर्वथा 
अभाव हो 
जाएगा।

©Gautam Bisht

जब युवा भविष्य की तरफ उन्मुख है, बृद्ध संस्मरण की यादों में खोया है। फिर बर्तमान जो सत्य हैं उसे कौन जी रहा है। भविष्य कल्पनाओं में हैं। अतीत भूत बन गुजर चुका है। फिर बर्तमान जो सबका निर्दोष होता है। उसकी सुध कौन लेगा। ©Gautam Bisht

#उत्तराखंड #समाज #Winter  जब युवा भविष्य की तरफ उन्मुख है, बृद्ध संस्मरण  की यादों में खोया है। फिर बर्तमान जो सत्य हैं उसे कौन जी रहा है। भविष्य कल्पनाओं में हैं। अतीत भूत बन गुजर चुका है। फिर बर्तमान जो सबका निर्दोष होता है। उसकी सुध कौन लेगा।

©Gautam Bisht

एकदा, अतीत की एक पंक्ति याद आती है। एक बीज था गया, बहुत ही गहराई में बोया, उसी बीज के अंतर में था, नन्हा पौधा ,,सो,,या कहानी, तकरीबन 40 साल पहले के अतीत के अंतर में सोए बीज की है। उस समय मेरा बचपन और इस माँ का 55 था, गर्मियों का दहकता सूर्य जब शरीर की ऊर्जा को पसीने के रूप में अवशोषित कर लेता, तो कई हुनरमंद तो जंगली कंद (सिरोल ) खोद कर अपनी भूख कुछ शांत कर देते। उस रोज मेरे हाथ भी खाली ही थे। बरगद के तले, स्कूल की रोटी की पोटली भी टें बोल गए थी। अब तो पेट की जठराग्नि प्रज्वलित होकर मन से भोजन की शिकायत कर रही थी। गाँव तो जंगल के कोस भर रास्ते के पार था। आज स्कूल के पास के ढलान पर बरगद के पेड़ की टूटी टहनियों से स्कूटर बना कर खूब चक्कर भी लगाये थे। अब तो मन करता कि पंख लगा कर उड़कर घर पहुँच जाऊं, पर कौन से घर मे भोजन तैयार ही होगा, माँ खेत मे गई होगी , जब लौटेंगी। तब कुछ बनेगा, फिर मंझली दीदी क्या पता कोई नया खेल कर दे। कितनी देर हो जाये। काश कुछ भी मिल जाता, ये सोचते जैसे ही पलखोट के पास मैं अपने छोटे छोटे थके कदमो से पहुँचा, तो देखा माँ गौशाला के ऊपर की मंजिल के दरवाजे पर बैठी मिली, जाकर देखता हूँ। तो कुछ छिले अमरूद नमक मिलाकर रखे है। मन को जैसे मुहँमांगी मुराद मिल गई, और घास की गठरी में जाने कितने पक्के अमरूद जैसे मेरी भूख की प्रतीक्षा कर रहे थे। उस दिन पहली बार जाना कि कर्म धर्म की इस रूहानी दुनिया मे भूख और भोजन की एक बड़ी पतवार भी है। जिसे जीव को जीवन भर खेना पड़ता है। ये मेरे बालपन का पहला साक्षात्कार था, जब मेरे मन मे सबसे बड़े सबसे करीबी रिश्ते में भावनाओं का उद्गम हुआ, तब मेरे बाल मन ने एक प्रतिज्ञा ली, आज की इस विकलता में तृप्ति का कर्ज है। मुझ पर जो दिन ब दिन मेरी उम्र के साथ बढ़ता ही जायेगा, माँ कभी बच्चो से हिसाब नही मांगती पर है। आज मुझमें जब 55 है, तब माँ की बूढ़ी हड्डियों में दादी, और नानी, के जैसे कम्पन्न आने लगा है। लगता जैसे उनका बचपन फिर लौट आया है। वे मेरी पोती की तरह ही बड़ी मुश्किल से पाँव जमा जमा कर चल पाती है। तो क्या अब उनके उस दिन के कर्ज का समय उपस्थित हो गया है। अब उन अमरूद के नन्हे नन्हे बीचों के अंकुर अपना कर्ज और फर्ज बनकर मेरे आस पास मेरी उग आए है। तो क्या माँ बाप अपने परलोक की सदगति के लिये ही पुत्र की कामना करते है , या सिर्फ कपाल क्रिया के लिये ही पुत्र का जन्म पर्याप्त है। या एक आत्मज , सन्तान की आवश्यक्ता इस समय के सहारे के लिये भी होती होगी। ये सदियों तक शोध का बिषय रहेगा। पर आज जो तृप्ति माँ के भोजन को देख मिलती है, तो लगता है। उस दिन का एक एक अमरूद का बीज उस दिन की सी भूख का कर्ज उत्तार कर फर्ज बन अतीत में विलुप्त होता जा रहा है। जैसे तुम्हारी कमाई का एक एक रुपया, गूगल से तुम्हारा बिल भरकर तुम्हारे बैंक एकाउंट से गुम होता चला जाता है। और कभी पुण्य तो कभी पाप में बदलकर अतीत की धरोहर बन जाता है। ,,,,,,, गौतम बिष्ट उत्तराखंड ©Gautam Bisht

#विचार  एकदा, 
अतीत  की एक पंक्ति याद आती है। 
एक बीज था गया, 
बहुत ही गहराई में बोया, 
उसी बीज के अंतर में था, 
नन्हा पौधा ,,सो,,या
कहानी, तकरीबन 40 साल पहले के अतीत के अंतर में सोए बीज की है। उस समय मेरा बचपन और इस माँ का 55 था, गर्मियों का दहकता सूर्य जब शरीर की ऊर्जा को पसीने के रूप में अवशोषित कर लेता, तो कई हुनरमंद तो जंगली कंद (सिरोल ) खोद कर अपनी भूख कुछ शांत कर देते। उस रोज मेरे हाथ भी खाली ही थे। बरगद के तले, स्कूल की रोटी की पोटली भी टें बोल गए थी। अब तो पेट की जठराग्नि प्रज्वलित होकर मन से भोजन की शिकायत कर रही थी। गाँव तो जंगल के कोस भर रास्ते के पार था। आज स्कूल के पास के ढलान पर बरगद के पेड़ की टूटी टहनियों से स्कूटर बना कर खूब चक्कर भी लगाये थे। अब तो मन करता कि पंख लगा कर उड़कर घर पहुँच जाऊं, पर कौन से घर मे भोजन तैयार ही होगा, माँ खेत मे गई होगी , जब लौटेंगी। तब कुछ बनेगा, फिर मंझली दीदी क्या पता कोई नया खेल कर दे। कितनी देर हो जाये। काश कुछ भी मिल जाता, ये सोचते जैसे  ही पलखोट के पास मैं अपने छोटे छोटे थके कदमो से पहुँचा, तो देखा माँ गौशाला के ऊपर की मंजिल के दरवाजे पर बैठी मिली, जाकर देखता हूँ। तो कुछ छिले अमरूद नमक मिलाकर रखे है। मन को जैसे मुहँमांगी मुराद मिल गई, और घास की गठरी में जाने कितने पक्के अमरूद जैसे मेरी भूख की प्रतीक्षा कर रहे थे। उस दिन पहली बार जाना कि कर्म धर्म की इस रूहानी दुनिया मे भूख और भोजन की एक बड़ी पतवार भी है। जिसे जीव को जीवन भर खेना पड़ता है। ये मेरे बालपन का पहला साक्षात्कार था, जब मेरे मन मे सबसे बड़े सबसे करीबी रिश्ते में भावनाओं का उद्गम हुआ, तब मेरे बाल मन ने एक प्रतिज्ञा ली, आज की इस विकलता में तृप्ति का कर्ज है। मुझ पर जो दिन ब दिन मेरी उम्र के साथ बढ़ता ही जायेगा, माँ कभी बच्चो से हिसाब नही मांगती पर है। आज मुझमें जब 55 है, तब माँ की बूढ़ी हड्डियों में दादी, और नानी, के जैसे कम्पन्न आने लगा है। लगता जैसे उनका बचपन फिर लौट आया है। वे मेरी पोती की तरह ही बड़ी मुश्किल से पाँव जमा जमा कर चल पाती है। तो क्या अब उनके उस दिन के कर्ज का समय उपस्थित हो गया है। अब उन अमरूद के नन्हे नन्हे बीचों के अंकुर अपना कर्ज और फर्ज बनकर मेरे आस पास मेरी उग आए है। तो क्या माँ बाप अपने परलोक की सदगति के लिये ही पुत्र की कामना करते है , या सिर्फ कपाल क्रिया के लिये ही पुत्र का जन्म पर्याप्त है।  या एक आत्मज , सन्तान की आवश्यक्ता इस समय के सहारे के लिये भी होती होगी। ये सदियों तक शोध का बिषय रहेगा। पर आज जो तृप्ति माँ के भोजन को देख मिलती है, तो लगता है। उस दिन का एक एक अमरूद का बीज उस दिन की सी भूख का कर्ज उत्तार कर फर्ज बन अतीत में विलुप्त होता जा रहा है। जैसे तुम्हारी कमाई का एक एक रुपया, गूगल से तुम्हारा बिल भरकर तुम्हारे बैंक एकाउंट से गुम होता चला जाता है। और कभी पुण्य तो कभी पाप में बदलकर अतीत की धरोहर बन जाता है। ,,,,,,,
 गौतम बिष्ट उत्तराखंड

©Gautam Bisht

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