तुम हो .......
अनकहे जज़्बात से,
अनपढ़ी किताब से,
अनगढ़ अक्षर से.....
जिसे मैं ढालती हूँ जज़्बातों में,
जिसे पढ़ती हूँ ...बस मैं ही,
और ...........
मैं ही उकेरती हूँ अक्षरों को ...
जीवन के कोरे पन्नों पर,
तभी तुम ,तुम बन पाते हो।
©®प्रतिष्ठा"प्रीत"
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