A Woman बंजर ज़मीं पर कब भला शजर लगता है ख़्वाबों | हिंदी Shayari

"A Woman बंजर ज़मीं पर कब भला शजर लगता है ख़्वाबों से ज़माना मेरे बे-ख़बर लगता है कैसे पार कर दूंँ ज़माने की दहलीज़ को बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है। समाज की हक़ीक़त का आईना मैं ही तो हूंँ सानिया, कल्पना और शाईना मैं ही तो हूंँ फिर क्यों नहीं ज़माने पर मेरी बातों का असर लगता है बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है। चर्चे आजकल मेरी अस्मत के, ख़बर में भी है मुझे घूरकर देखने वाले,बहन तेरे घर में भी है बड़ा ही ना -समझ मुझे तू ऐ बशर! लगता है बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है। लोगों! मेरी छोटी सी बात को शामत ना समझा जाए पढ़ने का हक़ मांगती हूंँ, इसे बग़ावत ना समझा जाए क्योंकि इल्म के दरख़्त पर ही तो खुशियों का समर लगता है बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है। मेरी तरक़्क़ी से ज़माने को कैसे चुभन हो गई मैं गर नौकरी करना चाहूंँ तो बदचलन कैसे हो गई ऐ ज़माने! सोच को तेरी शायद अब ज़र लगता है बेटी हूंँ जनाब.....! मुस्कुराने से भी डर लगता है। अब्बू की आंँखों का तारा, शायद माँ की परछाई थी मैं कम उम्र में ही शादी कर दी, क्या..! इतनी पराई थी मैं दुख ही दुख मुक़द्दर मेरा, यही मेरा हमसफ़र लगता है बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है। "रसूल-ए-ख़ुदा" का बेटियों पर ऐतबार नही पढ़ा है क्या मुझे कम समझने वाले,तूने हज़रत फ़ातिमा का किरदार नहीं पढ़ा है क्या जिनके सामने तो इस आसमान का भी ये क़मर फ़ीक़ा लगता है बेटी हूंँ जनाब.......................! मुस्कुराने से भी डर लगता है। ये बेटियाँ ही ज़माने की सबसे बड़ी दौलत ही तो है जन्नत है जिसके क़दमों में, वो मांँ भी एक औरत ही तो है झुकता जिसके सामने अक्सर "हैदर" का सर लगता है बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है। ©Zulqar-Nain Haider Ali Khan"

 A Woman बंजर ज़मीं पर कब भला शजर लगता है
ख़्वाबों से ज़माना मेरे बे-ख़बर लगता है
कैसे पार कर दूंँ ज़माने की दहलीज़ को
बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

                 समाज की हक़ीक़त का आईना मैं ही तो हूंँ
                 सानिया, कल्पना और शाईना मैं ही तो हूंँ
                 फिर क्यों नहीं ज़माने पर मेरी बातों का असर लगता है
                 बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

चर्चे आजकल मेरी अस्मत के, ख़बर में भी है
मुझे घूरकर देखने वाले,बहन तेरे घर में भी है
बड़ा ही ना -समझ मुझे तू ऐ बशर! लगता है
बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

                लोगों! मेरी छोटी सी बात को शामत ना समझा जाए
                पढ़ने का हक़ मांगती हूंँ, इसे बग़ावत ना समझा जाए
                क्योंकि इल्म के दरख़्त पर ही तो खुशियों का समर लगता है
                बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

मेरी तरक़्क़ी से ज़माने को कैसे चुभन हो गई 
मैं गर नौकरी करना चाहूंँ तो बदचलन कैसे हो गई
ऐ ज़माने! सोच को तेरी शायद अब ज़र लगता है
बेटी हूंँ जनाब.....! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

               अब्बू की आंँखों का तारा, शायद माँ की परछाई थी मैं
               कम उम्र में ही शादी कर दी, क्या..! इतनी पराई थी मैं
               दुख ही दुख मुक़द्दर मेरा, यही मेरा हमसफ़र लगता है
               बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

"रसूल-ए-ख़ुदा" का बेटियों पर ऐतबार नही पढ़ा है क्या
मुझे कम समझने वाले,तूने हज़रत फ़ातिमा का किरदार नहीं पढ़ा है क्या
जिनके सामने तो इस आसमान का भी ये क़मर फ़ीक़ा लगता है
बेटी हूंँ जनाब.......................! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

             ये बेटियाँ ही ज़माने की सबसे बड़ी दौलत ही तो है 
             जन्नत है जिसके क़दमों में, वो मांँ भी एक औरत ही तो है
             झुकता जिसके सामने अक्सर "हैदर" का सर लगता है
             बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

©Zulqar-Nain Haider Ali Khan

A Woman बंजर ज़मीं पर कब भला शजर लगता है ख़्वाबों से ज़माना मेरे बे-ख़बर लगता है कैसे पार कर दूंँ ज़माने की दहलीज़ को बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है। समाज की हक़ीक़त का आईना मैं ही तो हूंँ सानिया, कल्पना और शाईना मैं ही तो हूंँ फिर क्यों नहीं ज़माने पर मेरी बातों का असर लगता है बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है। चर्चे आजकल मेरी अस्मत के, ख़बर में भी है मुझे घूरकर देखने वाले,बहन तेरे घर में भी है बड़ा ही ना -समझ मुझे तू ऐ बशर! लगता है बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है। लोगों! मेरी छोटी सी बात को शामत ना समझा जाए पढ़ने का हक़ मांगती हूंँ, इसे बग़ावत ना समझा जाए क्योंकि इल्म के दरख़्त पर ही तो खुशियों का समर लगता है बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है। मेरी तरक़्क़ी से ज़माने को कैसे चुभन हो गई मैं गर नौकरी करना चाहूंँ तो बदचलन कैसे हो गई ऐ ज़माने! सोच को तेरी शायद अब ज़र लगता है बेटी हूंँ जनाब.....! मुस्कुराने से भी डर लगता है। अब्बू की आंँखों का तारा, शायद माँ की परछाई थी मैं कम उम्र में ही शादी कर दी, क्या..! इतनी पराई थी मैं दुख ही दुख मुक़द्दर मेरा, यही मेरा हमसफ़र लगता है बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है। "रसूल-ए-ख़ुदा" का बेटियों पर ऐतबार नही पढ़ा है क्या मुझे कम समझने वाले,तूने हज़रत फ़ातिमा का किरदार नहीं पढ़ा है क्या जिनके सामने तो इस आसमान का भी ये क़मर फ़ीक़ा लगता है बेटी हूंँ जनाब.......................! मुस्कुराने से भी डर लगता है। ये बेटियाँ ही ज़माने की सबसे बड़ी दौलत ही तो है जन्नत है जिसके क़दमों में, वो मांँ भी एक औरत ही तो है झुकता जिसके सामने अक्सर "हैदर" का सर लगता है बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है। ©Zulqar-Nain Haider Ali Khan


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