Zulqar-Nain Haider Ali Khan

Zulqar-Nain Haider Ali Khan Lives in Ghaziabad, Uttar Pradesh, India

मुख्तलिफ है मिज़ाज हमारा , समझ में आजाएं तो पुरखुलूस हैं हम , . . . . ना समझ पाए तो मगरूर ठहरे हम ।।।।

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#तुम्हेंभूलनेकीकोशिश_हरबारयूँहीनाकामहोजातीहै #love❤ #Shayar #violin #story

#तुम्हेंभूलनेकीकोशिश_हरबारयूँहीनाकामहोजातीहै सहर होती है रोज़ ज़िंदगी की फिर शाम हो जाती है जीने वाला भी क्या करे, ज़िंदगी यूँही तमाम हो जाती है सर-ए-शाम होते ही तुम्हारी यादों में डूब जाया करते हैं तुम्हें भूलने की कोशिश हर बार यूँही नाकाम हो जाती है दिन गुज़रता है अक्सर ही इधर-उधर की मशग़ूली में

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#Feeling #Shayar #Quote #gazal

ये किसने कहा तुमसे कि मैं उदास नहीं होता #Quote #nojoto #Shayar #gazal #Poet #Poetry #SAD #Feeling #Love

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#Feeling #Quotes  जिसके  लहज़े  में  थोड़ा  भी  अपना  अक्स  मिलता  है
ऐसा  कहाँ   ज़माने  में  अब   कोई    शख़्स   मिलता  है

ख़्याल उसका इस क़दर हावी हुआ दिल से हार गया हूँ
ढूँढने  पर  हर-आदमी  उसके ही  बर-अक्स  मिलता है

मुन्फरिद  है वो, मुख़्तलिफ़  इतना अलग ही  दिखाई दे
उसे रोज़ कहाँ ख़्वाबों में आने का फिर वक़्त मिलता है

बोली में  उसके  इतनी  शग़ुफ़्ताई  कि  सुनता रहूँ बस
मगर जो भी  मिलता है  लहज़ा लिए  सख़्त मिलता है

शब-ए-फ़िराक़ गुज़ारना मुहाल हो जाता है अक्सर ही
बिन तेरे रात गुज़रे नहीं,ऐसा कोई ना दरख़्त मिलता है 

उसको ज़ुल्फ-ए-पेचाँ ऐसी कि मैं उलझ कर रह गया हूँ
निकलें कैसे, यहाँ से निकलने का कहाँ  रख़्त मिलता है

©Zulqar-Nain Haider Ali Khan

जिसके लहज़े में थोड़ा भी अपना अक्स मिलता है ऐसा कहाँ ज़माने में अब कोई शख़्स मिलता है ख़्याल उसका इस क़दर हावी हुआ दिल से हार गया हूँ ढूँढने पर हर-आदमी उसके ही बर-अक्स मिलता है मुन्फरिद है वो, मुख़्तलिफ़ इतना अलग ही दिखाई दे उसे रोज़ कहाँ ख़्वाबों में आने का फिर वक़्त मिलता है

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#feelings

#Poetry #feelings

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#na #Life #Love #Shayari #Poetry #Feeling #urdu #ishq #Quote #Fondness

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A Woman बंजर ज़मीं पर कब भला शजर लगता है ख़्वाबों से ज़माना मेरे बे-ख़बर लगता है कैसे पार कर दूंँ ज़माने की दहलीज़ को बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है। समाज की हक़ीक़त का आईना मैं ही तो हूंँ सानिया, कल्पना और शाईना मैं ही तो हूंँ फिर क्यों नहीं ज़माने पर मेरी बातों का असर लगता है बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है। चर्चे आजकल मेरी अस्मत के, ख़बर में भी है मुझे घूरकर देखने वाले,बहन तेरे घर में भी है बड़ा ही ना -समझ मुझे तू ऐ बशर! लगता है बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है। लोगों! मेरी छोटी सी बात को शामत ना समझा जाए पढ़ने का हक़ मांगती हूंँ, इसे बग़ावत ना समझा जाए क्योंकि इल्म के दरख़्त पर ही तो खुशियों का समर लगता है बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है। मेरी तरक़्क़ी से ज़माने को कैसे चुभन हो गई मैं गर नौकरी करना चाहूंँ तो बदचलन कैसे हो गई ऐ ज़माने! सोच को तेरी शायद अब ज़र लगता है बेटी हूंँ जनाब.....! मुस्कुराने से भी डर लगता है। अब्बू की आंँखों का तारा, शायद माँ की परछाई थी मैं कम उम्र में ही शादी कर दी, क्या..! इतनी पराई थी मैं दुख ही दुख मुक़द्दर मेरा, यही मेरा हमसफ़र लगता है बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है। "रसूल-ए-ख़ुदा" का बेटियों पर ऐतबार नही पढ़ा है क्या मुझे कम समझने वाले,तूने हज़रत फ़ातिमा का किरदार नहीं पढ़ा है क्या जिनके सामने तो इस आसमान का भी ये क़मर फ़ीक़ा लगता है बेटी हूंँ जनाब.......................! मुस्कुराने से भी डर लगता है। ये बेटियाँ ही ज़माने की सबसे बड़ी दौलत ही तो है जन्नत है जिसके क़दमों में, वो मांँ भी एक औरत ही तो है झुकता जिसके सामने अक्सर "हैदर" का सर लगता है बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है। ©Zulqar-Nain Haider Ali Khan

#Life_experience #NaariDiwas  A Woman बंजर ज़मीं पर कब भला शजर लगता है
ख़्वाबों से ज़माना मेरे बे-ख़बर लगता है
कैसे पार कर दूंँ ज़माने की दहलीज़ को
बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

                 समाज की हक़ीक़त का आईना मैं ही तो हूंँ
                 सानिया, कल्पना और शाईना मैं ही तो हूंँ
                 फिर क्यों नहीं ज़माने पर मेरी बातों का असर लगता है
                 बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

चर्चे आजकल मेरी अस्मत के, ख़बर में भी है
मुझे घूरकर देखने वाले,बहन तेरे घर में भी है
बड़ा ही ना -समझ मुझे तू ऐ बशर! लगता है
बेटी हूंँ जनाब! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

                लोगों! मेरी छोटी सी बात को शामत ना समझा जाए
                पढ़ने का हक़ मांगती हूंँ, इसे बग़ावत ना समझा जाए
                क्योंकि इल्म के दरख़्त पर ही तो खुशियों का समर लगता है
                बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

मेरी तरक़्क़ी से ज़माने को कैसे चुभन हो गई 
मैं गर नौकरी करना चाहूंँ तो बदचलन कैसे हो गई
ऐ ज़माने! सोच को तेरी शायद अब ज़र लगता है
बेटी हूंँ जनाब.....! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

               अब्बू की आंँखों का तारा, शायद माँ की परछाई थी मैं
               कम उम्र में ही शादी कर दी, क्या..! इतनी पराई थी मैं
               दुख ही दुख मुक़द्दर मेरा, यही मेरा हमसफ़र लगता है
               बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

"रसूल-ए-ख़ुदा" का बेटियों पर ऐतबार नही पढ़ा है क्या
मुझे कम समझने वाले,तूने हज़रत फ़ातिमा का किरदार नहीं पढ़ा है क्या
जिनके सामने तो इस आसमान का भी ये क़मर फ़ीक़ा लगता है
बेटी हूंँ जनाब.......................! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

             ये बेटियाँ ही ज़माने की सबसे बड़ी दौलत ही तो है 
             जन्नत है जिसके क़दमों में, वो मांँ भी एक औरत ही तो है
             झुकता जिसके सामने अक्सर "हैदर" का सर लगता है
             बेटी हूंँ जनाब...........! मुस्कुराने से भी डर लगता है।

©Zulqar-Nain Haider Ali Khan
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