तू किसी शाम सी ढलने लगी,
किसी जाम सी उतरने लगी,
चाहा तुझे जब लगाना गले,
तू लकीरों से मिटने लगी।
ख़ाब देखे थे कई,
सपने सजाये कई,
आँख लगी जब भी,
हुए थे करीब तेरे जरा सा,
तो न जाने क्यों भोर हो गयी।
माँगा ज्यादा न था कुछ ,
बस साथ तेरा
तू रेत की लकीर हो गई,
आंधी यूँ तो न थी,
एक झोखा ही था बस,
तू काजल की तरह मिट गई।
©Sachin Pathak
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