sunset nature जल्द मेरा पसंदीदा मौसम आ जाएगा। जब श | हिंदी Quotes

"sunset nature जल्द मेरा पसंदीदा मौसम आ जाएगा। जब शाख़ो से पत्ते मुंह के बल गिरेंगे। हर दरख़्त हल्क़ा महसूस करेंगे, तमाम सूखे पत्ते ज़मीन पे गर्म हवाओं से फिसलते हुए एक किनारे पर सिमट जायेंगे। जब सूखी टहनियों के पार भी सूखी टहनियां दिखेंगी। जब आस पास खुला सा लगेगा मानो हर दरख़्त बोझ से आज़ाद हुआ हो। जब चट चट करती हुई डालियाँ टूट के दरख़्त के पैरों पर गिरेंगी। जब कोई डाली किसी वज़न से झुकेगी नही। जब परिदों की आवाज़ें साफ़ सुनाई देंगी, जब हर जगह से नमी दूर होगी। ख़िज़ां की वो दोपहर और उसकी वीरानी मुझे सुकून देगी। ज़िन्दगी भर ढकने से अजब वहशत रही है जब हर चीज़ सीने पे चढ़ी आती है फिर वो खुद पे पड़ी चादर से लेकर आस पास बिखरी हुई चीज़े क्यों न हो एक वहशत सी होने लगती है। अब मुझे प्रकृति से लेकर इंसान तक और इंसान से लेकर उसके ज़हन तक कोई ओट नही चाहिए। अब मुझे लफ़्ज़ों के गहरे अर्थ, और हर कारगुज़ारियों के गहरे मायने नही चाहिए। ©Tarique S. Usmani"

 sunset nature जल्द मेरा पसंदीदा मौसम आ जाएगा। जब शाख़ो 
से पत्ते मुंह के बल गिरेंगे। हर दरख़्त हल्क़ा महसूस 
करेंगे, तमाम सूखे पत्ते ज़मीन पे गर्म हवाओं से 
फिसलते हुए एक किनारे पर सिमट जायेंगे।
जब सूखी टहनियों के पार भी सूखी टहनियां दिखेंगी।
जब आस पास खुला सा लगेगा मानो हर दरख़्त 
बोझ से आज़ाद हुआ हो। जब चट चट करती हुई 
डालियाँ टूट के दरख़्त के पैरों पर गिरेंगी। जब कोई 
डाली किसी वज़न से झुकेगी नही।
जब परिदों की आवाज़ें साफ़ सुनाई देंगी, जब हर 
जगह से नमी दूर होगी।
ख़िज़ां की वो दोपहर और उसकी वीरानी मुझे सुकून 
देगी। ज़िन्दगी भर ढकने से अजब वहशत रही है जब 
हर चीज़ सीने पे चढ़ी आती है फिर वो खुद पे पड़ी 
चादर से लेकर आस पास बिखरी हुई चीज़े क्यों न हो 
एक वहशत सी होने लगती है।
अब मुझे प्रकृति से लेकर इंसान तक और इंसान से 
लेकर उसके ज़हन तक कोई ओट नही चाहिए। 
अब मुझे लफ़्ज़ों के गहरे अर्थ, और हर कारगुज़ारियों 
के गहरे मायने नही चाहिए।

©Tarique S. Usmani

sunset nature जल्द मेरा पसंदीदा मौसम आ जाएगा। जब शाख़ो से पत्ते मुंह के बल गिरेंगे। हर दरख़्त हल्क़ा महसूस करेंगे, तमाम सूखे पत्ते ज़मीन पे गर्म हवाओं से फिसलते हुए एक किनारे पर सिमट जायेंगे। जब सूखी टहनियों के पार भी सूखी टहनियां दिखेंगी। जब आस पास खुला सा लगेगा मानो हर दरख़्त बोझ से आज़ाद हुआ हो। जब चट चट करती हुई डालियाँ टूट के दरख़्त के पैरों पर गिरेंगी। जब कोई डाली किसी वज़न से झुकेगी नही। जब परिदों की आवाज़ें साफ़ सुनाई देंगी, जब हर जगह से नमी दूर होगी। ख़िज़ां की वो दोपहर और उसकी वीरानी मुझे सुकून देगी। ज़िन्दगी भर ढकने से अजब वहशत रही है जब हर चीज़ सीने पे चढ़ी आती है फिर वो खुद पे पड़ी चादर से लेकर आस पास बिखरी हुई चीज़े क्यों न हो एक वहशत सी होने लगती है। अब मुझे प्रकृति से लेकर इंसान तक और इंसान से लेकर उसके ज़हन तक कोई ओट नही चाहिए। अब मुझे लफ़्ज़ों के गहरे अर्थ, और हर कारगुज़ारियों के गहरे मायने नही चाहिए। ©Tarique S. Usmani

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