White पुष्प सा बिखरे हुए प्रण मै उठाकर लौट आई,
स्वप्न महलों में मिली मुझको अबूझी एक आहट,
मैं उसे आहट कहूँ या फिर कहूँ बस सनसनाहट।
इक किनारे मग्न-मूरत,छोर दूजी रतजगे थे,
नीर से धुँधले हुए दीवार पर दर्पण लगे थे।
उन पुराने दर्पणों छोड़ कर मैं लौट आई
बन नदी आस्तित्व खोई सिंधुं तट से लौट आई
कुछ विगत के चित्र उभरे धूल जिनपर जम चुकी थी,
कुछ अभागी सिसकने थीं, साँस जिनकी थम चुकी थी।
कुछ पुराने भाव भी जो अक्षरों में ढल न पाए,
कुछ व्यथित पावन सरोवर,जा बसे थे धड़कनों में
कुछ खड़े विश्वास के तरु,नीर पाकर जो हरे थे,
मान्यताएं भी खड़ी थीं,देवता लोचन भरे थे।
ओढ़ तम की चादरों में गाती रही ऋतुएं व्यथाएँ,
स्तब्ध हो सुनती रही मैं मौन श्रुतियों की कथाएँ।
स्वप्न कल्पित उस गगन का बन सुधाकर लौट आई,
मैं विरह और वेदना के पार जाकर लौट आई।
©Manvi Singh Manu
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