आखों ने वो बयां नहीं की
जो तुम्हारी लब्बों पे थी...
वो तेजी से चलती हुयी सासें
सब कुछ बता रही थी...
हम करीब आए, पर
उतने नहीं की एक हो सकें
तुम जज़्बात रोक ली
मगर धड़कन को नहीं
जिसमें कोई और था...
ये फरवरी का महीना और
तुम्हारी हां में हां कहना
जरुरत हो या हो कोई इम्तिहान...
मेरे लिए वर्षों का एक वजूद
जिसमें कभी अपनी अक्स
देखने की उम्मीद थी...
तुम समां तो सजा ली
मगर उसे बांध ना पाई
जिसमें कोई और था
©कुन्दन मिश्रा
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