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मोमीता देबनाथ : एक ओर बेटी
सिसकती रहीं और बेबस रहीं
वो हैवानियत से भी ज्यादा कुछ
और ज़िस्म से भी ज्यादा कुछ
अपनी रूह पर सहती रहीं
माँ दुर्गा के इस शहर में
बेटी आज मारी गयी और
ज़िस्म से नौची गयी
वो आसूँओ की गूंज कहीं
दीवारो से टकराती रहीं
बहती सिसकियां और लहू आँखो से
ज़मीन भी मातम मनाती रहीं
माँ दुर्गा के इस शहर में
बेटी आज तड़पती रही और
ज़िस्म से नौची गयी
दर्द की पराकाष्ठा से भी कुछ परे है तो (चरमसीमा)
उस बेटी ने सही होगी
उन दरिन्दों की क्रूरता की पराकाष्ठा से
हवा भी सहमी होगी
कितनी डरी और लाचार होगी वो तब
जब वहशीपन की इन्तिहा हुई होगी
क्या गुनाह था उसका , इन से पूछो तो सही
परवाज़ के लिए तैयार थी वो (उड़ान)
एक ख़्वाब था उसका
और वो गरूर था माँ- बाप का
कितनी बिजली गिराई होगी
कितनी पीड़ा से वो निकली होगी
इन दरिन्दों को सिर्फ हवस दिखी ,
न उसमें बहन दिखी, न उसमें माँ दिखी
न गर्वित करने वाली समाज की वो औरत दिखी
न दिखी उसमें एक उम्मीद
न दिखी उसमें एक ज़िन्दगी
न दिखी घर से निकलते वक्त चोखट पर खड़ी वो औरत
न दिखी जन्म देने वाली और दुवा पढ़ने वाली वो औरत
न दिखी खुद की वो छोटी नन्ही सी परी बिटिया
दिख जाती तो शायद
आज 'मोमीता' जी पाती , जिन्दा होती
©Anurag Mankhand
#nightthoughts #RapefreeIndiA