ये हुनर ये खेल कब नाराजगी में बदल गया वो आशिकी क | हिंदी Shayari

"ये हुनर ये खेल कब नाराजगी में बदल गया वो आशिकी की फिकर में उल्फत से गफलत कर गया माना की निगाहें तबस्सुम का अहसास देती हैं बस कुछ देर तक ही झूँठा आगाज देती हैं उससे कहो की सम्हल जाये क्योंकी फिर न वक्त मिलेगा नाराज करने का न हिज़र ए शाज करने का ये सब गलतफहमी है तुम्हारी इसको दूर कर दो उल्फत ए शाज को मंजूर कर दो नही तो हवाओं का रुख बदलना हमे भी आता है और जिगर की आग गहरी है आगर हांथ डालोगे तो जान लो यहां भी भरी दोपहरी है ©AVIRAL MISHRA"

 ये हुनर ये खेल 
कब नाराजगी में बदल गया 
वो आशिकी की फिकर में उल्फत से गफलत कर गया 
माना की निगाहें तबस्सुम का अहसास देती हैं
बस कुछ देर तक ही झूँठा आगाज देती हैं 
उससे कहो की सम्हल जाये
क्योंकी फिर न वक्त मिलेगा नाराज करने का 
न हिज़र ए शाज करने का 
ये सब  गलतफहमी है तुम्हारी इसको दूर कर दो 
उल्फत ए शाज को मंजूर कर दो 
नही तो हवाओं का रुख बदलना हमे भी आता है 
और जिगर की आग गहरी है आगर हांथ डालोगे 
तो जान लो यहां भी भरी दोपहरी है

©AVIRAL MISHRA

ये हुनर ये खेल कब नाराजगी में बदल गया वो आशिकी की फिकर में उल्फत से गफलत कर गया माना की निगाहें तबस्सुम का अहसास देती हैं बस कुछ देर तक ही झूँठा आगाज देती हैं उससे कहो की सम्हल जाये क्योंकी फिर न वक्त मिलेगा नाराज करने का न हिज़र ए शाज करने का ये सब गलतफहमी है तुम्हारी इसको दूर कर दो उल्फत ए शाज को मंजूर कर दो नही तो हवाओं का रुख बदलना हमे भी आता है और जिगर की आग गहरी है आगर हांथ डालोगे तो जान लो यहां भी भरी दोपहरी है ©AVIRAL MISHRA

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