मन कहां कभी चाहा था उड़ने को वो तो हौसलो ने उड़ा दिया था। डर ने तो पिंजरे में बांध रखा था संघर्षों से लड़ना छोड़ दिया था समझौता उसने कर लिया था बंधन जिसने सब कुछ उसका छीन लिया था छीन लिया था उसकी कलाओं को मन को भी झकझोर दिया था काल ग्रस्त मन हो चुका था। अपनी पहचान वह खो चुका था। एक उम्मीद के आ जाने से मन उसका निडर हो चुका था तोड़ दिया था उन बंधनों को जिसने उसको जकड़ लिया था। सारे संशय मिटाकर उसमें नई चेतना जगा दिया था तब वह अपनी कला को पाकर आनंद विभोर हो चुका था मन कहां कभी चाहा था उड़ने को मन कहा कभी चाहा था ख्वाब बुनने को ये तो ख्वाहिशों ने बुन वा दिया था एक सुनहरा ख्वाब देखने की चाहत उससे करवा दिया था मन कहां कभी चाहा था उड़ने को वो तो हौसलो नेउड़ा दिया था।
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