ग़ज़ल किसी भी बेवफ़ा से तो वफ़ा भी खुद से धोखा है | हिंदी शायरी

"ग़ज़ल किसी भी बेवफ़ा से तो वफ़ा भी खुद से धोखा है किसी पत्थर से कोई इल्तिजा भी खुद से धोखा है कोई भी ख़्वाब ऐसा जो मुकम्मल हो नहीं सकता उसे फिर देखना क्या सोचना भी खुद से धोखा है निशाँ क़दमों के तुम अपने मिटाते भी चलो वर्ना अदू के वास्ते तो नक़्श-ए-पा भी खुद से धोखा है तुम्हारे दाग़ को जो तिल कहे ऐबों को ही मस्सा तो ऐसे आईने से सामना भी खुद से धोखा है हजारों कोशिशों के बाद भी जब भर नहीं पाते तो ये लगता है ज़ख़्मों की दवा भी खुद से धोखा है @धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद' ©Dharmendra Azad"

 ग़ज़ल 

किसी भी बेवफ़ा से तो वफ़ा भी खुद से धोखा है 
किसी पत्थर से कोई इल्तिजा भी खुद से धोखा है 

कोई भी ख़्वाब ऐसा जो मुकम्मल हो नहीं सकता 
उसे फिर देखना क्या सोचना भी खुद से धोखा है 

निशाँ क़दमों के तुम अपने मिटाते भी चलो वर्ना 
अदू के वास्ते तो नक़्श-ए-पा भी खुद से धोखा है 

तुम्हारे दाग़ को जो तिल कहे ऐबों को ही मस्सा 
तो ऐसे आईने से सामना भी खुद से धोखा है 

हजारों कोशिशों के बाद भी जब भर नहीं पाते 
तो ये लगता है ज़ख़्मों की दवा भी खुद से धोखा है 

@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

©Dharmendra Azad

ग़ज़ल किसी भी बेवफ़ा से तो वफ़ा भी खुद से धोखा है किसी पत्थर से कोई इल्तिजा भी खुद से धोखा है कोई भी ख़्वाब ऐसा जो मुकम्मल हो नहीं सकता उसे फिर देखना क्या सोचना भी खुद से धोखा है निशाँ क़दमों के तुम अपने मिटाते भी चलो वर्ना अदू के वास्ते तो नक़्श-ए-पा भी खुद से धोखा है तुम्हारे दाग़ को जो तिल कहे ऐबों को ही मस्सा तो ऐसे आईने से सामना भी खुद से धोखा है हजारों कोशिशों के बाद भी जब भर नहीं पाते तो ये लगता है ज़ख़्मों की दवा भी खुद से धोखा है @धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद' ©Dharmendra Azad

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