ग़ज़ल
किसी भी बेवफ़ा से तो वफ़ा भी खुद से धोखा है
किसी पत्थर से कोई इल्तिजा भी खुद से धोखा है
कोई भी ख़्वाब ऐसा जो मुकम्मल हो नहीं सकता
उसे फिर देखना क्या सोचना भी खुद से धोखा है
निशाँ क़दमों के तुम अपने मिटाते भी चलो वर्ना
अदू के वास्ते तो नक़्श-ए-पा भी खुद से धोखा है
तुम्हारे दाग़ को जो तिल कहे ऐबों को ही मस्सा
तो ऐसे आईने से सामना भी खुद से धोखा है
हजारों कोशिशों के बाद भी जब भर नहीं पाते
तो ये लगता है ज़ख़्मों की दवा भी खुद से धोखा है
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'
©Dharmendra Azad