एक शाम थी ढली, रोशन थी गली... बचपन भी कितना सुन्दर था ना डर ना भय कही भी आती थी कहीं भी जाती थीं हमेशा मुस्कुराती थी वो शाम की रोशन सी गलियां वो यादों के समुन्दर सभी बहुत खुबसूरत था उस नदी के किनारे बैठकर पानी में पत्थर फेंकना सब कुछ कितना सुन्दर था वो बचपन के दोस्तों के साथ साईकिल पर घूमने निकल जाना फिर शाम को घर आना फिर मम्मी और पापा कि डांट सुनना सब कुछ बहुत अच्छा था पर एक वक्त ऐसा आया कि अब तो ना कोई संगी साथी है ना कोई नदी का किनारा है ना साईकिल हैं ना कहीं घूमने जाना है अब तों मम्मी, पापा भी नहीं डांटते ना जाने कहां चलें गये वो दिन कितना सुन्दर था वो बचपन
©Priyanka
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