【आदमी हो तुम】
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आदमी हो तुम ,आदमी ही रहोगे,
विधाता तो तुम ,बन सकते नहीं।
चाँद से तुम जलन कितनी भी करलो,
नूर उसका कभी छीन सकते नहीं।
कद भले हो तुम्हारा, पर्वतों की तरह,
आसमां को कभी , तुम छू सकते नहीं।
चाहें लाख दीपक जला लो धरा तुम,
तारों जैसी नुमाइश कर सकते नहीं।
पथ नदियों का तुम भले मोड़ लो,
लहर सागर की तुम रोक सकते नहीं।
ज्ञान चाहें तुम कितना भी अर्चित करलो,
विधाता का लिखा,तुम पढ़ सकते नहीं।
काम करने का तरीका उसका निराला है,
उसकी तरह तुम कुछ कर सकते नहीं।
इंद्रधनुष, फूल ,तितलियों, पेड़ पौधों में,
उसकी तरह तुम रंग भर सकते नहीं।
जो वो चाहेगा इस जहाँ में ,होगा वो ही,
उसके आगे कुछ ,तुम कर सकते नहीं।
आदमी हो तुम , आदमी ही रहोगे,
विधाता तो तुम , बन सकते नहीं।
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'विकास शाहजहाँपुरी'
©Kavi Vikas Singh
मेरी कलम से