घर के काम काज मे व्यस्त रहकर
दुसरो की जिंदगी को मस्त करकर
मेरे शहर से मेरा नाता टूटा जाए
मेरी असल जिंदगी, मेरा नैहर छूटा जाए
बहुत साल हो गए नैहर जाए हुए
उन गलियों मे खुद को पाए हुए
सोचा नही था एक जीवन ऐसा भी रहेगा
गुड़िया मुझको अब कोई नही कहेगा
वो गुड़िया अब मै नही रही अपने पापा की
जो ले आते थे हर संध्या मिठाई बताशा की
बदल गयी है वो जो अम्मा की चंडाली थी
सामने बैठाकर जो लगाती मुझको लाली थी
नही रही अपने लाडले की मै वो दीदी
जो बचाये पैसों से करता था रक्षाबंधन की खरीदी
पीहर की जिंदगी चालीस साल की हो रही है
लेकिन बारह साल नैहर की जिंदगी हावी ही रही है
सालों बीत गए माँ - बाबू जी को गए हुए
भैया चाची चाचा सबसे डाँट खाए हुए
मेरा अपना शहर वक्त के चरखे मे उजड़ा जाए
मेरी असल जिंदगी, मेरा नैहर छूटा जाए
–Vikas Gupta
©Vikas Gupta