क्यूं बेवजह बदनाम है अंधेरी रात...
मुझे दिन की रोशनी ज्यादा मनहूस लगती है,
रात का अंधेरा नींद मुकम्मल करता है...
दिन की रोशनी कसकर आंखों में चुभती है।।
रोशनी में मुझसे लिखा भी नहीं जाता...
हर्फ दिखते हैं, लफ्ज़ दिखाई पड़ते हैं,
कागज,कलम सब अपने से लगते हैं...
मगर जाने क्यूं कोई जज़्बात नज़र ही नहीं आता।।
अश्क बेझिझक बहते नहीं रोशनी में...
यहां तो होंठ भी फर्जी मुस्कुराते हैं,
पढ़ ना ले कोई ग़म चेहरे पे...
रोशनी में हम एक और चेहरा लगाते हैं।।
मगर जाते नहीं किसी की नजरों तक...
ये दर्द, ये ज़ख्म अंधेरे में,
है रहता बेखौफ बेपर्दा आजाद...
मेरा हर एक मर्ज अंधेरें में।।
हर पल एक तन्हाई काटती है मुझको...
कमबख़्त हजारों हिस्सों में बांटती है मुझको,
एक शोर सुनाई देता है जो सुन्न है...
गौर से सुनो!शायद,
ये अंधेरा भी किसी गीत की अधूरी धुन है।।
अंधेरा क्या है भला...
ये अंधेरा...सच है मेरा,
मेरे कमरे और तकिये का हालात हैं...
अंधेरा गुमशुदा जज़्बात है,
बीत गया उस कल के जैसा...
और अंधेरा आज है,
हां,अंधेरा हर सांझ है।।
- निकिता रावत।
लफ़्ज़ों की ज़ुबां✍️
©Nikita Rawat
#ChaltiHawaa