कुछ तो हूं "मैं" विशेष,
हूं मैं मानवता का गौरव...
इंसानियत का राग हूं,
काली-काली इस दुनिया पर...
इक श्वेत रंग का दाग हूं।।
वात्सल्य का मापदंड मैं,
शक्ति की आधार हूं...
घुंघट में छिपा साहस मैं,
सहिष्णुता की पराकाष्ठा का उद्गार हूं।।
सागर के तट का रेत हूं मैं,
क्षितिज पर ढलते सूरज की लाली हूं...
आफरीन...चांद की चांदनी मैं,
मैं ही धरती माता, मैं जग को पालने वाली हूं।।
फर्ज है जितने दुनिया में सब औरत के नाम है क्यों,
अबला होना इस दुनिया में औरत पर इल्जाम है क्यों...
कितनी बातें दुनिया में हर रोज अधूरी रहती हैं,
चला नहीं कोई साथ तो क्या, टूट गई एक आस तो क्या।।
माना कि टूट कर गिरी हूं,
पर फिर भी फूल हूं,कोई आवारा पत्ती नहीं...
जो ठोकर मार दी हर कहीं,
हो अगर कद्र मेरी तो ही जमीं से उठाना...
वरना बिन देखे अपने रस्ते चलते जाना।।
दुर्बल नहीं हूं ,मैं "नारी" हूं,
मैं ही एक-एक पर भारी हूं...
पग पंजों से चोटी तक,
काबिल सारी की सारी हूं।।
नई पीढ़ी का मार्गदर्शन, परित्याग की उपासना हूं,
धर्म में बाकी बची आस्था मैं,
प्राचीन सभ्यता का अवशेष हूं...
वेदना,अवहेलना का शब्दकोश,
अंतिम मंजिल(धरती मां)का शुन्य शेष...
हां,कुछ तो हूं "मैं" विशेष।।
-निकिता रावत।
लफ़्ज़ों की ज़ुबां ✍️
©Nikita Rawat
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