बे-दखल चाहत हुई है,
भावना आहत हुई है,
प्रेम का मरहम लगाया,
तब कहीं राहत हुई है,
बेवज़ह बेचैन हो मन,
समझ लो उल्फ़त हुई है,
देखता हरबार मुड़कर,
जब कोई आहट हुई है,
ध्यान में बैठे हो जबसे,
फिर कहां फ़ुर्सत हुई है,
हो मनोरथ सिद्ध अपना,
ऐसी कब किस्मत हुई है,
मुस्कुराकर भूल जाना,
अपनी तो आदत हुई है,
याद तड़पाती है 'गुंजन',
घर गये मुद्दत हुई है,
-शशि भूषण मिश्र 'गुंजन'
प्रयागराज उ०प्र०
©Shashi Bhushan Mishra
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