संदेह के घेरे इतने बड़े होते हैं कि "शीलं परम भूषणं

"संदेह के घेरे इतने बड़े होते हैं कि "शीलं परम भूषणं" लिखने वाला व्यक्ति भी इस घेरे में आसानी से आ जाता है यही कृत्य सद्य:कालीन मानसिकता का पर्याय हो सकता है, ऐसी मानसिकताओं को सीखना चाहिए "पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु" के संदर्भ में विचार की सूक्ति ही शरीर का आवरण गढ़ती है और आवरण से बाहर होना तो अति सामान्य होगा महज़ सामान्य होना ही शील कैसे बनायेगा ??"

 संदेह के घेरे इतने बड़े होते हैं कि
"शीलं परम भूषणं"
लिखने वाला व्यक्ति भी 
इस घेरे में आसानी से आ जाता है 
यही कृत्य सद्य:कालीन मानसिकता का पर्याय हो सकता है,
ऐसी मानसिकताओं को सीखना चाहिए 
"पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु" 
के संदर्भ में विचार की सूक्ति ही शरीर का आवरण गढ़ती है और
आवरण से बाहर होना तो अति सामान्य होगा
महज़ सामान्य होना ही शील कैसे बनायेगा ??

संदेह के घेरे इतने बड़े होते हैं कि "शीलं परम भूषणं" लिखने वाला व्यक्ति भी इस घेरे में आसानी से आ जाता है यही कृत्य सद्य:कालीन मानसिकता का पर्याय हो सकता है, ऐसी मानसिकताओं को सीखना चाहिए "पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु" के संदर्भ में विचार की सूक्ति ही शरीर का आवरण गढ़ती है और आवरण से बाहर होना तो अति सामान्य होगा महज़ सामान्य होना ही शील कैसे बनायेगा ??

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