कूचा-ए-यार में जाना अब मुनासिब नहीं था
बेवज़ह उनसे मुक़ाबिल होना वाज़िब नहीं था
बेरुख़ी तो उनकी सह लेते हम दुआओं की तरह
सर-ए-महफ़िल उनका यूँ तोहमत लगाना लाज़िम नहीं था
तल्ख़ लहजों से रूह को मज़रूह किया ज़ालिम ने क्यूँ
इश्क़ तो उनको भी था हमसे हाँ मगर क़ामिल नहीं था
©Dr Shefali Sharma
कूचा-ए-यार में जाना अब मुनासिब नहीं था.......
मुक़ाबिल- आमने-सामने
सर-ए-महफ़िल-भरी सभा में
मज़रूह- घायल