मेरी ख्वाहिशें मेरे दिल में दबी ही रहीं
तवज्जों पर मैने बस तेरी खुशी रक्खी
तुम्हारी जिंदगी उजाला बा काफी रहे
लहू जला कर ईमान से दोस्ती रक्खी
परवरिश तुम्हारी जिंदगी सलामत रहे
बेपरवाह बा खुद से बे खुदी रक्खी
बाजिंदगी मुकम्मल मंजिल तुझे मिले
सर झुका के दुश्मनों से दोस्ती रक्खी
बड़े सवाल थे हालात भी अच्छे नहीं
तेरी किताबत कोई कमी नहीं रक्खी
तेरा स्वाभिमान मान सम्मान भी रहे
जुड़े हाथों से लोगों से दोस्ती रक्खी
खुद की जिंदगी भले ही फांके काटी
तेरी टिफिन पुष्ट नाश्ते से भरी रक्खी
तेरे हर शौक बड़े शौक से पूरे किए
टूटे जूते बनियान अपनी फटी रक्खी
ख़्वाब अरमान अंबुज अधूरे ही रहे
चिंता तुम्हारी पर झुठी हँसी रक्खी
मुझे कभी भी एतराज ना रहा तुझसे
तेरी खुशी में ही अपनी खुशी रक्खी
अंबिका अनंत अंबुज AAA
(पिता का पुत्र से संवाद)
©अंबिका अनंत अंबुज