एकदा, अतीत की एक पंक्ति याद आती है। एक बीज था ग | हिंदी विचार

"एकदा, अतीत की एक पंक्ति याद आती है। एक बीज था गया, बहुत ही गहराई में बोया, उसी बीज के अंतर में था, नन्हा पौधा ,,सो,,या कहानी, तकरीबन 40 साल पहले के अतीत के अंतर में सोए बीज की है। उस समय मेरा बचपन और इस माँ का 55 था, गर्मियों का दहकता सूर्य जब शरीर की ऊर्जा को पसीने के रूप में अवशोषित कर लेता, तो कई हुनरमंद तो जंगली कंद (सिरोल ) खोद कर अपनी भूख कुछ शांत कर देते। उस रोज मेरे हाथ भी खाली ही थे। बरगद के तले, स्कूल की रोटी की पोटली भी टें बोल गए थी। अब तो पेट की जठराग्नि प्रज्वलित होकर मन से भोजन की शिकायत कर रही थी। गाँव तो जंगल के कोस भर रास्ते के पार था। आज स्कूल के पास के ढलान पर बरगद के पेड़ की टूटी टहनियों से स्कूटर बना कर खूब चक्कर भी लगाये थे। अब तो मन करता कि पंख लगा कर उड़कर घर पहुँच जाऊं, पर कौन से घर मे भोजन तैयार ही होगा, माँ खेत मे गई होगी , जब लौटेंगी। तब कुछ बनेगा, फिर मंझली दीदी क्या पता कोई नया खेल कर दे। कितनी देर हो जाये। काश कुछ भी मिल जाता, ये सोचते जैसे ही पलखोट के पास मैं अपने छोटे छोटे थके कदमो से पहुँचा, तो देखा माँ गौशाला के ऊपर की मंजिल के दरवाजे पर बैठी मिली, जाकर देखता हूँ। तो कुछ छिले अमरूद नमक मिलाकर रखे है। मन को जैसे मुहँमांगी मुराद मिल गई, और घास की गठरी में जाने कितने पक्के अमरूद जैसे मेरी भूख की प्रतीक्षा कर रहे थे। उस दिन पहली बार जाना कि कर्म धर्म की इस रूहानी दुनिया मे भूख और भोजन की एक बड़ी पतवार भी है। जिसे जीव को जीवन भर खेना पड़ता है। ये मेरे बालपन का पहला साक्षात्कार था, जब मेरे मन मे सबसे बड़े सबसे करीबी रिश्ते में भावनाओं का उद्गम हुआ, तब मेरे बाल मन ने एक प्रतिज्ञा ली, आज की इस विकलता में तृप्ति का कर्ज है। मुझ पर जो दिन ब दिन मेरी उम्र के साथ बढ़ता ही जायेगा, माँ कभी बच्चो से हिसाब नही मांगती पर है। आज मुझमें जब 55 है, तब माँ की बूढ़ी हड्डियों में दादी, और नानी, के जैसे कम्पन्न आने लगा है। लगता जैसे उनका बचपन फिर लौट आया है। वे मेरी पोती की तरह ही बड़ी मुश्किल से पाँव जमा जमा कर चल पाती है। तो क्या अब उनके उस दिन के कर्ज का समय उपस्थित हो गया है। अब उन अमरूद के नन्हे नन्हे बीचों के अंकुर अपना कर्ज और फर्ज बनकर मेरे आस पास मेरी उग आए है। तो क्या माँ बाप अपने परलोक की सदगति के लिये ही पुत्र की कामना करते है , या सिर्फ कपाल क्रिया के लिये ही पुत्र का जन्म पर्याप्त है। या एक आत्मज , सन्तान की आवश्यक्ता इस समय के सहारे के लिये भी होती होगी। ये सदियों तक शोध का बिषय रहेगा। पर आज जो तृप्ति माँ के भोजन को देख मिलती है, तो लगता है। उस दिन का एक एक अमरूद का बीज उस दिन की सी भूख का कर्ज उत्तार कर फर्ज बन अतीत में विलुप्त होता जा रहा है। जैसे तुम्हारी कमाई का एक एक रुपया, गूगल से तुम्हारा बिल भरकर तुम्हारे बैंक एकाउंट से गुम होता चला जाता है। और कभी पुण्य तो कभी पाप में बदलकर अतीत की धरोहर बन जाता है। ,,,,,,, गौतम बिष्ट उत्तराखंड ©Gautam Bisht"

 एकदा, 
अतीत  की एक पंक्ति याद आती है। 
एक बीज था गया, 
बहुत ही गहराई में बोया, 
उसी बीज के अंतर में था, 
नन्हा पौधा ,,सो,,या
कहानी, तकरीबन 40 साल पहले के अतीत के अंतर में सोए बीज की है। उस समय मेरा बचपन और इस माँ का 55 था, गर्मियों का दहकता सूर्य जब शरीर की ऊर्जा को पसीने के रूप में अवशोषित कर लेता, तो कई हुनरमंद तो जंगली कंद (सिरोल ) खोद कर अपनी भूख कुछ शांत कर देते। उस रोज मेरे हाथ भी खाली ही थे। बरगद के तले, स्कूल की रोटी की पोटली भी टें बोल गए थी। अब तो पेट की जठराग्नि प्रज्वलित होकर मन से भोजन की शिकायत कर रही थी। गाँव तो जंगल के कोस भर रास्ते के पार था। आज स्कूल के पास के ढलान पर बरगद के पेड़ की टूटी टहनियों से स्कूटर बना कर खूब चक्कर भी लगाये थे। अब तो मन करता कि पंख लगा कर उड़कर घर पहुँच जाऊं, पर कौन से घर मे भोजन तैयार ही होगा, माँ खेत मे गई होगी , जब लौटेंगी। तब कुछ बनेगा, फिर मंझली दीदी क्या पता कोई नया खेल कर दे। कितनी देर हो जाये। काश कुछ भी मिल जाता, ये सोचते जैसे  ही पलखोट के पास मैं अपने छोटे छोटे थके कदमो से पहुँचा, तो देखा माँ गौशाला के ऊपर की मंजिल के दरवाजे पर बैठी मिली, जाकर देखता हूँ। तो कुछ छिले अमरूद नमक मिलाकर रखे है। मन को जैसे मुहँमांगी मुराद मिल गई, और घास की गठरी में जाने कितने पक्के अमरूद जैसे मेरी भूख की प्रतीक्षा कर रहे थे। उस दिन पहली बार जाना कि कर्म धर्म की इस रूहानी दुनिया मे भूख और भोजन की एक बड़ी पतवार भी है। जिसे जीव को जीवन भर खेना पड़ता है। ये मेरे बालपन का पहला साक्षात्कार था, जब मेरे मन मे सबसे बड़े सबसे करीबी रिश्ते में भावनाओं का उद्गम हुआ, तब मेरे बाल मन ने एक प्रतिज्ञा ली, आज की इस विकलता में तृप्ति का कर्ज है। मुझ पर जो दिन ब दिन मेरी उम्र के साथ बढ़ता ही जायेगा, माँ कभी बच्चो से हिसाब नही मांगती पर है। आज मुझमें जब 55 है, तब माँ की बूढ़ी हड्डियों में दादी, और नानी, के जैसे कम्पन्न आने लगा है। लगता जैसे उनका बचपन फिर लौट आया है। वे मेरी पोती की तरह ही बड़ी मुश्किल से पाँव जमा जमा कर चल पाती है। तो क्या अब उनके उस दिन के कर्ज का समय उपस्थित हो गया है। अब उन अमरूद के नन्हे नन्हे बीचों के अंकुर अपना कर्ज और फर्ज बनकर मेरे आस पास मेरी उग आए है। तो क्या माँ बाप अपने परलोक की सदगति के लिये ही पुत्र की कामना करते है , या सिर्फ कपाल क्रिया के लिये ही पुत्र का जन्म पर्याप्त है।  या एक आत्मज , सन्तान की आवश्यक्ता इस समय के सहारे के लिये भी होती होगी। ये सदियों तक शोध का बिषय रहेगा। पर आज जो तृप्ति माँ के भोजन को देख मिलती है, तो लगता है। उस दिन का एक एक अमरूद का बीज उस दिन की सी भूख का कर्ज उत्तार कर फर्ज बन अतीत में विलुप्त होता जा रहा है। जैसे तुम्हारी कमाई का एक एक रुपया, गूगल से तुम्हारा बिल भरकर तुम्हारे बैंक एकाउंट से गुम होता चला जाता है। और कभी पुण्य तो कभी पाप में बदलकर अतीत की धरोहर बन जाता है। ,,,,,,,
 गौतम बिष्ट उत्तराखंड

©Gautam Bisht

एकदा, अतीत की एक पंक्ति याद आती है। एक बीज था गया, बहुत ही गहराई में बोया, उसी बीज के अंतर में था, नन्हा पौधा ,,सो,,या कहानी, तकरीबन 40 साल पहले के अतीत के अंतर में सोए बीज की है। उस समय मेरा बचपन और इस माँ का 55 था, गर्मियों का दहकता सूर्य जब शरीर की ऊर्जा को पसीने के रूप में अवशोषित कर लेता, तो कई हुनरमंद तो जंगली कंद (सिरोल ) खोद कर अपनी भूख कुछ शांत कर देते। उस रोज मेरे हाथ भी खाली ही थे। बरगद के तले, स्कूल की रोटी की पोटली भी टें बोल गए थी। अब तो पेट की जठराग्नि प्रज्वलित होकर मन से भोजन की शिकायत कर रही थी। गाँव तो जंगल के कोस भर रास्ते के पार था। आज स्कूल के पास के ढलान पर बरगद के पेड़ की टूटी टहनियों से स्कूटर बना कर खूब चक्कर भी लगाये थे। अब तो मन करता कि पंख लगा कर उड़कर घर पहुँच जाऊं, पर कौन से घर मे भोजन तैयार ही होगा, माँ खेत मे गई होगी , जब लौटेंगी। तब कुछ बनेगा, फिर मंझली दीदी क्या पता कोई नया खेल कर दे। कितनी देर हो जाये। काश कुछ भी मिल जाता, ये सोचते जैसे ही पलखोट के पास मैं अपने छोटे छोटे थके कदमो से पहुँचा, तो देखा माँ गौशाला के ऊपर की मंजिल के दरवाजे पर बैठी मिली, जाकर देखता हूँ। तो कुछ छिले अमरूद नमक मिलाकर रखे है। मन को जैसे मुहँमांगी मुराद मिल गई, और घास की गठरी में जाने कितने पक्के अमरूद जैसे मेरी भूख की प्रतीक्षा कर रहे थे। उस दिन पहली बार जाना कि कर्म धर्म की इस रूहानी दुनिया मे भूख और भोजन की एक बड़ी पतवार भी है। जिसे जीव को जीवन भर खेना पड़ता है। ये मेरे बालपन का पहला साक्षात्कार था, जब मेरे मन मे सबसे बड़े सबसे करीबी रिश्ते में भावनाओं का उद्गम हुआ, तब मेरे बाल मन ने एक प्रतिज्ञा ली, आज की इस विकलता में तृप्ति का कर्ज है। मुझ पर जो दिन ब दिन मेरी उम्र के साथ बढ़ता ही जायेगा, माँ कभी बच्चो से हिसाब नही मांगती पर है। आज मुझमें जब 55 है, तब माँ की बूढ़ी हड्डियों में दादी, और नानी, के जैसे कम्पन्न आने लगा है। लगता जैसे उनका बचपन फिर लौट आया है। वे मेरी पोती की तरह ही बड़ी मुश्किल से पाँव जमा जमा कर चल पाती है। तो क्या अब उनके उस दिन के कर्ज का समय उपस्थित हो गया है। अब उन अमरूद के नन्हे नन्हे बीचों के अंकुर अपना कर्ज और फर्ज बनकर मेरे आस पास मेरी उग आए है। तो क्या माँ बाप अपने परलोक की सदगति के लिये ही पुत्र की कामना करते है , या सिर्फ कपाल क्रिया के लिये ही पुत्र का जन्म पर्याप्त है। या एक आत्मज , सन्तान की आवश्यक्ता इस समय के सहारे के लिये भी होती होगी। ये सदियों तक शोध का बिषय रहेगा। पर आज जो तृप्ति माँ के भोजन को देख मिलती है, तो लगता है। उस दिन का एक एक अमरूद का बीज उस दिन की सी भूख का कर्ज उत्तार कर फर्ज बन अतीत में विलुप्त होता जा रहा है। जैसे तुम्हारी कमाई का एक एक रुपया, गूगल से तुम्हारा बिल भरकर तुम्हारे बैंक एकाउंट से गुम होता चला जाता है। और कभी पुण्य तो कभी पाप में बदलकर अतीत की धरोहर बन जाता है। ,,,,,,, गौतम बिष्ट उत्तराखंड ©Gautam Bisht

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