तंज़ भी सारे बेअसर गए, क्या मेरे चाहनेवाले मर गए... | हिंदी Shayari

"तंज़ भी सारे बेअसर गए, क्या मेरे चाहनेवाले मर गए...? रात शेख साहब को मयकदे मे देखा था, सुबह होते ही खुदा के घर गए... जिस-जिस पे था दावा मुझको अपने होने का, रोज़-ए-महशर एक-एक कर सारे मुकर गए... रफता-रफता ये हुआ के मेरे आशार मे वो, हर्फ-दर-हर्फ और निखर गए... 'आज़म' के पहलू मे उन्हें तलाशते क्या हो? हज़रत के वो तो कब के मर गए... ©Saif Azam"

 तंज़ भी सारे बेअसर गए,
क्या मेरे चाहनेवाले मर गए...?

रात शेख साहब को मयकदे मे देखा था,
सुबह होते ही खुदा के घर गए...

जिस-जिस पे था दावा मुझको अपने होने का,
रोज़-ए-महशर एक-एक कर सारे मुकर गए...

रफता-रफता ये हुआ के मेरे आशार मे वो,
हर्फ-दर-हर्फ और निखर गए...

'आज़म' के पहलू मे उन्हें तलाशते क्या हो?
हज़रत के वो तो कब के मर गए...

©Saif Azam

तंज़ भी सारे बेअसर गए, क्या मेरे चाहनेवाले मर गए...? रात शेख साहब को मयकदे मे देखा था, सुबह होते ही खुदा के घर गए... जिस-जिस पे था दावा मुझको अपने होने का, रोज़-ए-महशर एक-एक कर सारे मुकर गए... रफता-रफता ये हुआ के मेरे आशार मे वो, हर्फ-दर-हर्फ और निखर गए... 'आज़म' के पहलू मे उन्हें तलाशते क्या हो? हज़रत के वो तो कब के मर गए... ©Saif Azam

Azam

#eveningtea

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