तंज़ भी सारे बेअसर गए,
क्या मेरे चाहनेवाले मर गए...?
रात शेख साहब को मयकदे मे देखा था,
सुबह होते ही खुदा के घर गए...
जिस-जिस पे था दावा मुझको अपने होने का,
रोज़-ए-महशर एक-एक कर सारे मुकर गए...
रफता-रफता ये हुआ के मेरे आशार मे वो,
हर्फ-दर-हर्फ और निखर गए...
'आज़म' के पहलू मे उन्हें तलाशते क्या हो?
हज़रत के वो तो कब के मर गए...
©Saif Azam
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