कभी मैं भी मोहब्बत लिखा करता था।
उसकी जुल्फों को घनी छांव और उसकी आंखों को गहरा समंदर कहता था लभ उसके मखमल से लगते थे और मुस्कुराहट उसकी जन्नत सी लगती थी।
फिर जिंदगी में दौर आया कि मोहब्बत इंकलाब होने लगी ।
उसकी जुल्फों की जगह संविधान की डिबेट लेने लगी।
मजलूमओ के दुख लगने लगे टूटे दिल से ,और इंकलाब से मोहब्बत सी होने लगी।
उसकी आंखें और उसकी जुल्फए खोने लगी।
रैलियों में जाता था जब मजदूरों के लिए आवाज उठाता था जब एक अजीब सी मोहब्बत महसूस होने लगी।
उनकी बाहों में नामोशी थी एक अजीब सी खामोशी थी ।
बांट रहे थे लोग मुझको कभी कॉम के नाम पर तू कभी,जात से पूछते थे नाम मेरा।
मगर इंकलाब से यू मोहब्बत थी कि कोई धर्म पूछता था तो आजादी बतलाता था कोई कौम पूछता था तो हिंदुस्तानी बतलाता था।
मैं अपने इंकलाब के साथ रोज मोहब्बत के पल बिताता था।
©Govind Bali 6 June 2020
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