कैसी ये उधेड़बुन है,
कैसी उलझन है..
सुलझाने लगूं मैं जितना,
थोड़ा और उलझ जाती है..
कभी ये डोर खींची तो कभी वो डोर..
पर मिला न कभी कोई ओर छोर..
कभी दिल ने कुछ एहसास बुने,
तो कभी दिमाग ने कुछ ख्वाब उधेड़े..
कुछ सही-गलत, तो कुछ परम्पराओं के थे घेरे..
जाने कितने ही सवालों कि डोरीयाँ है..
जाने कितनी ही अनसुलझी सी पहेलियाँ है..
हर सुबह एक नई सी कोशिश रहती है..
सुलझा सकूं मैं एक भी डोर,
यही फिर एक नई सी उधेड़बुन होती है....
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