ग़ज़ल - 2122 2122 1221 2212 देर तक ठहरे मिज़ाज | हिंदी शायरी

"ग़ज़ल - 2122 2122 1221 2212 देर तक ठहरे मिज़ाज-ए-मुदारात इस कूचे में आ रहे है अब तिरे कुछ ख़यालात इस कूचे में हमको ना दीजो कोई गर्द जह'मत की वाइज मिरे हो गया हूँ यक ब-कैफ़ी-ए-हालात इस कूचे में तुम नही कुरआन में बे-सदा चीखने वाले गर मत करो जाया ये वक़्त-ए-मुनाजात इस कूचे में अपने सब अहद-ए-वफ़ा लौटा दूँगा तिरे दर कभी जान ले सक'ती है कोई मुला'क़ात इस कूचे में इस मुहब्बत के शगूफे जिया'दा नही चलते दाग़ यार रह'ने दो तिरे सब इशा'रात इस कूचे में याँ ये किसका खूँ पड़ा है जमीं की दरारों में फिर कौन जाहिल कर रहा था करा'मात इस कूचे में तुम वक़ा'लत भी पढ़े हो मगर चुप ही रहना जफ़र इश्क़ के दामन मिरे पाँव कोई हिना से कटे रो रही है अब मिरी कोई बा'रात इस कूचे में अब नही मिलती तला'फ़ी-ए-मा'फ़ात इस कूचे में बे-दिली का शहर फिर ख़ाक-पत्थर दे सकता है बस अब बड़ा नुक़'सान देंगे ये हा'जात इस कूचे में हमने भी इक़ दो ग़ज़ल अप'ने हाथों रखी है जिया कुछ दिनों से हो रहा है, जो है'यात इस कूचे में ©Jiya Wajil khan"

 ग़ज़ल - 2122 2122 1221 2212

देर   तक   ठहरे   मिज़ाज-ए-मुदारात   इस   कूचे   में
आ रहे   है  अब  तिरे   कुछ   ख़यालात  इस  कूचे  में
 
हमको  ना  दीजो  कोई   गर्द जह'मत  की वाइज  मिरे
हो  गया  हूँ   यक  ब-कैफ़ी-ए-हालात   इस   कूचे   में

तुम   नही  कुरआन   में   बे-सदा   चीखने   वाले   गर
मत  करो  जाया  ये  वक़्त-ए-मुनाजात   इस   कूचे  में

अपने  सब  अहद-ए-वफ़ा  लौटा  दूँगा  तिरे  दर  कभी
जान  ले   सक'ती   है   कोई  मुला'क़ात   इस  कूचे  में

इस मुहब्बत  के   शगूफे   जिया'दा   नही   चलते दाग़
यार   रह'ने   दो   तिरे   सब  इशा'रात    इस  कूचे   में

याँ ये  किसका  खूँ  पड़ा  है  जमीं की  दरारों  में  फिर
कौन   जाहिल  कर  रहा  था   करा'मात  इस  कूचे  में

तुम वक़ा'लत  भी  पढ़े  हो  मगर  चुप ही  रहना जफ़र
इश्क़  के   दामन   मिरे  पाँव   कोई   हिना    से    कटे

रो   रही  है   अब   मिरी   कोई  बा'रात   इस   कूचे  में
अब   नही   मिलती तला'फ़ी-ए-मा'फ़ात  इस  कूचे  में

बे-दिली का शहर  फिर ख़ाक-पत्थर दे सकता है  बस
अब  बड़ा  नुक़'सान   देंगे  ये  हा'जात   इस   कूचे   में

हमने  भी   इक़ दो  ग़ज़ल अप'ने  हाथों रखी  है  जिया
कुछ   दिनों   से   हो  रहा  है, जो  है'यात  इस  कूचे  में

©Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 2122 2122 1221 2212 देर तक ठहरे मिज़ाज-ए-मुदारात इस कूचे में आ रहे है अब तिरे कुछ ख़यालात इस कूचे में हमको ना दीजो कोई गर्द जह'मत की वाइज मिरे हो गया हूँ यक ब-कैफ़ी-ए-हालात इस कूचे में तुम नही कुरआन में बे-सदा चीखने वाले गर मत करो जाया ये वक़्त-ए-मुनाजात इस कूचे में अपने सब अहद-ए-वफ़ा लौटा दूँगा तिरे दर कभी जान ले सक'ती है कोई मुला'क़ात इस कूचे में इस मुहब्बत के शगूफे जिया'दा नही चलते दाग़ यार रह'ने दो तिरे सब इशा'रात इस कूचे में याँ ये किसका खूँ पड़ा है जमीं की दरारों में फिर कौन जाहिल कर रहा था करा'मात इस कूचे में तुम वक़ा'लत भी पढ़े हो मगर चुप ही रहना जफ़र इश्क़ के दामन मिरे पाँव कोई हिना से कटे रो रही है अब मिरी कोई बा'रात इस कूचे में अब नही मिलती तला'फ़ी-ए-मा'फ़ात इस कूचे में बे-दिली का शहर फिर ख़ाक-पत्थर दे सकता है बस अब बड़ा नुक़'सान देंगे ये हा'जात इस कूचे में हमने भी इक़ दो ग़ज़ल अप'ने हाथों रखी है जिया कुछ दिनों से हो रहा है, जो है'यात इस कूचे में ©Jiya Wajil khan

#जिया

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