अमावस हो रात फिर दीपक जलाने का,
समय हो प्रतिकूल कान्हा को बुलाने का,
मन लगा गोपाल में तन हो गया गोकुल,
बस यही तरक़ीब है दुनिया भुलाने का,
मिला खेवनहार दरिया पार कर लूँगा,
ज़िस्म में ताकत नहीं गोता लगाने का,
पुराने ज़ख़्मों को बे-मतलब कुरेदो मत,
जो नहीं अपना उसे फ़िर भूल जाने का,
जन्म से आखिर तक संघर्ष का आलम,
बांसुरी की तान पर झूला झुलाने का,
ज्ञान के पानी से बुझती प्यास जन्मों की,
हृदय है प्यासा उसे पानी पिलाने का,
बात जिसकी समझ में है आ गई 'गुंजन',
मिल गया अवसर उसे भवपार जाने का,
---शशि भूषण मिश्र 'गुंजन'
प्रयागराज उ॰प्र॰
©Shashi Bhushan Mishra
#दीपक जलाने का#