एक बार ही सही पर हटाओ वह मुखौटा,
जो तुमने पहना नहीं, तुम्हें पहनाया गया है-
कभी समाज की अस्वीकृति तो कभी उसके ताने,
जिनसे तुम्हें शुरुआत से ही डराया गया है।
हटाओ मुखौटा कि एक बार पूर्णतया सांस तो आए,
पिटारे में बंद दिल अब भी है जीवित, यह एहसास तो आए।
हटाओ मुखौटा कि इस मुर्झाए से मुख पर मुस्कान तो आए,
अपने इन हाथों में अपने ही जीवन की कमान तो आए।
हटाओ मुखौटा कि जिन्हें भीतर छिपे हृदय से है प्रेम,
उन सब के भी हृदयों को करार तो आए।
और जिन्हें लगता है कि तुम झुककर टूटकर बिखर चुके हो,
उनकी इस सोच में ज़रा सी दरार तो आए।
इक बार ही सही पर हटाओ यह मुखौटा,
कि खुद से द्वेष भावना की कमी तो आए।
किसी और को नहीं तो न सही मेरे दोस्त,
पर खुद तुम्हें खुद पर यकीन तो आए
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