एक के बाद एक
फँसते जा रहे हैं हम
समस्याओं के,
दुर्भेद चक्रव्यूह में
चाहते हैं,
चक्रव्यूह से बाहर निकल,
मुक्त हो जाएँ हम भी
रोज प्रत्यंचा चढ़ जाती है,
लक्ष्य बेधन के लिए
लेकिन असमर्थताएँ
परास्त कर जाती हैं
हर तरफ से।
शायद-
हो गये हैं हम भी,
अभिमन्यु की तरह।
काश,
इससे निकलने का भेद भी
बतला ही दिया होता
अर्जुन ने ।
©Himkar Shyam
#चक्रव्यूह #कविता