भीड़ में भटकती आंखें यदि किसी दूसरे आंखों के गहरे

"भीड़ में भटकती आंखें यदि किसी दूसरे आंखों के गहरे शून्य में कहीं ठहर जाए तो प्रेम से पहले दर्द होता है, उस दूसरी आंखों में उतर कर फ़िर भटकना उससे पहले वाले भटकने से ज्यादा दर्दनाक होता है, पहले वाले भटकने में सिर्फ भटकना होता है, बस यूं ही अपने काम में बहकना होता है, पर दूसरा वाला भटकना में बेचैनी, बदनामी होती है, गीर के उठने का भी ताकत नहीं होता, सो गिरने से पहले हि संभलना होता है। ये दूसरा वाला भटकना में "तुम आगे बढ़ो, तुम वीर हो" सब बेकार होता है, इसमें "जिंदा रहना सिखो" से काम होता है। . . . ©Piyush"

 भीड़ में भटकती आंखें यदि किसी दूसरे आंखों के गहरे शून्य में 
कहीं ठहर जाए तो प्रेम से पहले दर्द होता है,

उस दूसरी आंखों में उतर कर फ़िर भटकना उससे पहले वाले भटकने से ज्यादा दर्दनाक होता है,

पहले वाले भटकने में सिर्फ भटकना होता है, बस यूं ही 
अपने काम में बहकना होता है, पर

दूसरा वाला भटकना में बेचैनी, बदनामी होती है,  गीर के उठने का भी ताकत  नहीं होता, सो गिरने से पहले हि संभलना होता है। 

ये दूसरा वाला भटकना में "तुम आगे बढ़ो, तुम वीर हो" सब बेकार होता है, 
इसमें "जिंदा रहना सिखो"  से काम होता है।
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भीड़ में भटकती आंखें यदि किसी दूसरे आंखों के गहरे शून्य में कहीं ठहर जाए तो प्रेम से पहले दर्द होता है, उस दूसरी आंखों में उतर कर फ़िर भटकना उससे पहले वाले भटकने से ज्यादा दर्दनाक होता है, पहले वाले भटकने में सिर्फ भटकना होता है, बस यूं ही अपने काम में बहकना होता है, पर दूसरा वाला भटकना में बेचैनी, बदनामी होती है, गीर के उठने का भी ताकत नहीं होता, सो गिरने से पहले हि संभलना होता है। ये दूसरा वाला भटकना में "तुम आगे बढ़ो, तुम वीर हो" सब बेकार होता है, इसमें "जिंदा रहना सिखो" से काम होता है। . . . ©Piyush

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