रेत से रिश्ते फिसलते चले गए जितना चाहा दबाना निकल | हिंदी Poetry

"रेत से रिश्ते फिसलते चले गए जितना चाहा दबाना निकलते चले गए मुट्ठी खोला तो खाली रह गई हथेली रिश्तों की इस भीड़ में मैं रह गई अकेली जो रिश्ते लगे अपने किश्तों में तोड़ गए वो सपने हैरान नहीं हूं ये जानकर रख नहीं सकती किसी को बांधकर जिसे जाना है वो चला ही जाएगा हर दहलीज को लांघ कर कदमों के निशान भी अब धुंधलाते चले गए हां ये रिश्ते हैं जितना चाहा दबाना निकलते चले गए ©Garima Srivastava"

 रेत से रिश्ते फिसलते चले गए 
जितना चाहा दबाना निकलते चले गए 

मुट्ठी खोला तो खाली रह गई हथेली
रिश्तों की इस भीड़ में मैं रह गई अकेली

जो रिश्ते लगे अपने
किश्तों में तोड़ गए वो सपने

हैरान नहीं हूं ये जानकर 
रख नहीं सकती किसी को बांधकर

जिसे जाना है वो चला ही जाएगा
हर दहलीज को लांघ कर

कदमों के निशान भी
अब धुंधलाते चले गए 

हां ये रिश्ते हैं 
जितना चाहा दबाना निकलते चले गए

©Garima Srivastava

रेत से रिश्ते फिसलते चले गए जितना चाहा दबाना निकलते चले गए मुट्ठी खोला तो खाली रह गई हथेली रिश्तों की इस भीड़ में मैं रह गई अकेली जो रिश्ते लगे अपने किश्तों में तोड़ गए वो सपने हैरान नहीं हूं ये जानकर रख नहीं सकती किसी को बांधकर जिसे जाना है वो चला ही जाएगा हर दहलीज को लांघ कर कदमों के निशान भी अब धुंधलाते चले गए हां ये रिश्ते हैं जितना चाहा दबाना निकलते चले गए ©Garima Srivastava

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