"वस्ल की रात लिखता हूँ
लबों पे बात लिखता हूँ
जुदाई के इस आलम में
अधूरे ख़्वाब भी तमाम लिखता हूँ
चन्द घड़ी चलके रुक जाता हूँ में
इसे तेरी में आवाज़ लिखता हूँ
तुम कभी कहती हो महबूब मुझे
में इसे ही सैलाब लिखता हूँ
बाकी तेरी मर्ज़ी तू इसे क्या क्या समझें
में तो तुझे मेरे इश्क़ का ख़िताब लिखता हूँ।"