और रखा ही क्या है बस गमखारी में अपनी,
बस मुझको ही अपनी मौत का मलाल होना बाकी है।
इक तेरा वसल के ना होने से फर्क कुछ खास नहीं पड़ा है मेरे तौर ए ज़िन्दगी पे।
बस इतना कि फिर से हुजूम का हिस्सा हो गया हूँ, जो ना कभी पढ़ा जायेगा ऐसा किस्सा हो गया हूँ। हर मिलने वाले के लिए ज्ञान बाटने का जरिया हो गया हूँ, ऐसा लगने लगता है कि मुझे महोब्बत आती ही ना थी जो था वो या तो अल्लढ़पन था या वैहस्त। यूं तो जमाने की बात का कोई असर नहीं है मुझपर लेकिन फिरभी कभी कभी यकीन सा होने लगता है... अब तो तुम्ही फैसला करो।
क्या... दिन भर ये दुआ करना के बस एक बार सिर्फ एक बार तुझे देख लूं और तुम्हे देखते ही मेरे जी का मचल जाना, दिमाग का खाली हो जाना, फिर उसके बाद... उस लम्हे का हो के रह जाना। और फिर तुम्हारा मेरे ख़्वाबो मे आना भी क्या वैहस्त था... के जिनमे हम इक दूजे को सहारा देते हुए किसी कश्ती को पार लगाने कि ज़द्दोजहेद करते मिले, तो कभी कॉलेज कि सिढ़ियों पर साथ बैठ के तुम्हारे, गाने गुनगूनाते रहे हैं।
यूं तो तुमने कभी मेरी दहलीज़ पे दस्तक ना दी पर... ये कमरे का इक-इक कोना तुमसे वाकिफ है, इन दीवारो ने तो कभी तुम्हारी शक्ल तक नहीं देखी पर तुम्पर जचने वाले हर शाज श्रृंगार के बारे में ये मुझे बखूबी बता सकती हैं।
और ना जाने कितने ही बेतुके सवाल जो तुम अपने समझदारी के दिखावे मे पुछते रहे उनके जवाब आज भी मुझे याद है,
और भी बहुत सी बाते है जो कही जा सकती है पर डर ये है कि कहीं गर तुमने खुद को पहचान लिया तो जिंदगी भर मैं तुमसे और खुद से नजरे ना मिला पाऊंगा ...