सुनो! ..............
लिखती हूँ तुम्हें रोज़,
कोरे कागज पर ....
और ख़ुद ही पढ़ लेती हूँ।
उस पल होते हैं बस....
हम दोनों ही ....
सुनहरे अक्षर से लिखे तुम,
और सुधिजन सी मैं ...
सिर्फ़ मैं ही पढ़ती हूँ तुम्हें,
और शरमा कर......होठों से दोहराती हूँ,
तुम्हारा नाम .......
और पलकें बन्द कर,
नयनों में बसा लेती हूँ....
और उतार लेती हूँ,
मन की गहराई में,
जहां से पढ़ न सके तुम्हें
कोई और ....
©®प्रतिष्ठा"प्रीत"
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