"क्या पता कौन अपने भीतर, कितने राज़ छिपाए जा रहा है,
किसी को मुस्तकबिल की पड़ी है, किसी को अतीत खाए जा रहा है।
यहां बुरे वक्त से लडने का भी, सबका अलग अलग अंदाज़ है,
कोई पत्थर बन के बैठ गया है, तो कोई आंसू बहाए जा रहा है।
- यशपाल पाराशर"
क्या पता कौन अपने भीतर, कितने राज़ छिपाए जा रहा है,
किसी को मुस्तकबिल की पड़ी है, किसी को अतीत खाए जा रहा है।
यहां बुरे वक्त से लडने का भी, सबका अलग अलग अंदाज़ है,
कोई पत्थर बन के बैठ गया है, तो कोई आंसू बहाए जा रहा है।
- यशपाल पाराशर