क़यामत तक आई है कलम की धारों से
बेखौफ़ निकलती है धहकते अंगारों से
टिकती कहाँ हैं बदलना फ़ितरत जो उनकी
सो राब्ता कम है मेरी कलम का बहारों से
ये कलम घावों पे मलहम रखे तो काम की
बेमतलब है दिल का लगाना रंगी नजारों से
आसमानी रंग चुरा कर समंदर ग़ुमाँ न कर
तेरी औकात समझ आती है तेरे किनारों से
हम वफ़ा करके ही बर्बाद हुए हैं साहिबान
जिसे शक है वो पूछ कर देख ले हजारों से
खरे सोने पर होती है उनकी नज़र दरअसल
कारीगरी कमाल मगर सावधान सुनारों से
और भी तो तरीके होंगे जीत जाने के
जरूरी नहीं जंग जीती जाये तलवारों से
वार हो जाये तो शेर-ए-जिगर कह दूँ तुझे
आजकल फर्क पड़ता नहीं कोरी दहाड़ों से
©अज्ञात
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