आज़ादी' चली आ रही थीं कुछ प्रथायें बरसों से इस सम | हिंदी कविता

"'आज़ादी' चली आ रही थीं कुछ प्रथायें बरसों से इस समाज में, न अभिव्यक्ति की आज़ादी थी, न हिम्मत थी नए आगाज़ की। न भाव थे न भावार्थ थे, बस एक पत्थर की मूरत सी ज़िंदगी थी, जिसमें न ही मेरे शब्दार्थ थे। दिल में खलबली सी मची हुई थी, शायद आज़ादी की मांग थी, अपनी बहनों को कोख में ही दम तोड़ते देखा, तब टूट गया मेरे सब्र का बांध और विरोध करते हुए निकल पड़ी मैं बिखरते जीवन को संवारने, अपने ख्वाबों के आज़ाद संसार को तलाशने। जब मैंने खुद को पहचाना, अपने अंदर ही ज़िन्दगी का मतलब जाना, खुद में ही सम्पूर्ण हूं, मैं भी तो आज़ाद हूं, क्यों किसी के आधीन जियूँ मैं इस संसार की बुलंद नींव हूं। अब हिम्मत से आगे बढ़ना है, खुद को बेहतर बनाना है, कम नहीं मैं किसी से भी ये साबित करके दिखाना है। चलना है बिना रुके, ख्वाबों को सच करना है, उड़ना है बेख़ौफ़ मुझे अब अपने लक्ष्य को हासिल करना है। अब नहीं रही मैं मूरत पत्थर की, खुद को आज़ाद मैंने कराया है, सारी बेड़ियों को तोड़ मैंने खुलकर जीने का साहस दिखाया है। आज़ाद पंछी सी उड़ रही हूं, झूम रही हूं अपनी धुन में, अब वो दिन दूर नहीं जब बेटियों का परचम लहराएगा दुनिया के हर छेत्र में।"

 'आज़ादी'

चली आ रही थीं कुछ प्रथायें बरसों से इस समाज में,
न अभिव्यक्ति की आज़ादी थी, न हिम्मत थी नए आगाज़ की।
न भाव थे न भावार्थ थे, बस एक पत्थर की मूरत सी ज़िंदगी थी, जिसमें न ही मेरे शब्दार्थ थे।
दिल में खलबली सी मची हुई थी, शायद आज़ादी की मांग थी,
अपनी बहनों को कोख में ही दम तोड़ते देखा, तब टूट गया मेरे सब्र का बांध और विरोध करते हुए
निकल पड़ी मैं बिखरते जीवन को संवारने, अपने ख्वाबों के आज़ाद संसार को तलाशने।
जब मैंने खुद को पहचाना, अपने अंदर ही ज़िन्दगी का मतलब जाना,
खुद में ही सम्पूर्ण हूं, मैं भी तो आज़ाद हूं, क्यों किसी के आधीन जियूँ मैं इस संसार की बुलंद नींव हूं।
अब हिम्मत से आगे बढ़ना है, खुद को बेहतर बनाना है, कम नहीं मैं किसी से भी ये साबित करके दिखाना है।
चलना है बिना रुके, ख्वाबों को सच करना है, उड़ना है बेख़ौफ़ मुझे अब अपने लक्ष्य को हासिल करना है।
अब नहीं रही मैं मूरत पत्थर की, खुद को आज़ाद मैंने कराया है, सारी बेड़ियों को तोड़ मैंने खुलकर जीने का साहस दिखाया है।
आज़ाद पंछी सी उड़ रही हूं, झूम रही हूं अपनी धुन में, अब वो दिन दूर नहीं जब बेटियों का परचम लहराएगा दुनिया के हर छेत्र में।

'आज़ादी' चली आ रही थीं कुछ प्रथायें बरसों से इस समाज में, न अभिव्यक्ति की आज़ादी थी, न हिम्मत थी नए आगाज़ की। न भाव थे न भावार्थ थे, बस एक पत्थर की मूरत सी ज़िंदगी थी, जिसमें न ही मेरे शब्दार्थ थे। दिल में खलबली सी मची हुई थी, शायद आज़ादी की मांग थी, अपनी बहनों को कोख में ही दम तोड़ते देखा, तब टूट गया मेरे सब्र का बांध और विरोध करते हुए निकल पड़ी मैं बिखरते जीवन को संवारने, अपने ख्वाबों के आज़ाद संसार को तलाशने। जब मैंने खुद को पहचाना, अपने अंदर ही ज़िन्दगी का मतलब जाना, खुद में ही सम्पूर्ण हूं, मैं भी तो आज़ाद हूं, क्यों किसी के आधीन जियूँ मैं इस संसार की बुलंद नींव हूं। अब हिम्मत से आगे बढ़ना है, खुद को बेहतर बनाना है, कम नहीं मैं किसी से भी ये साबित करके दिखाना है। चलना है बिना रुके, ख्वाबों को सच करना है, उड़ना है बेख़ौफ़ मुझे अब अपने लक्ष्य को हासिल करना है। अब नहीं रही मैं मूरत पत्थर की, खुद को आज़ाद मैंने कराया है, सारी बेड़ियों को तोड़ मैंने खुलकर जीने का साहस दिखाया है। आज़ाद पंछी सी उड़ रही हूं, झूम रही हूं अपनी धुन में, अब वो दिन दूर नहीं जब बेटियों का परचम लहराएगा दुनिया के हर छेत्र में।

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