आरज़ू है कि उनसे मिलूँ, पर वो ना मिले तो मैं क्या करूँ
जिसे समझा मैं अपना नसीब वही दे दग़ा तो मैं क्या करूँ
एक रात की थी जुस्तजू, वो मिले मुझसे ऐसे हुबहू
मुझे क़फ़स में बिठा कर के वो चले गए तो मैं क्या करूँ
मशहूर वो तो बहुत हुए, मूझे छोड़ कर जब वो गए
जो ज़ख्म मैंने सी लिया वही दरक जाए तो मैं क्या करूँ
पैबस्त इतनी सी उनसे है मेरी, की उनसे कुछ न कह सकूँ
वही वस्ल है वही हिज़्र है वही अज़ाब है तो मैं क्या करूँ
वो अज़ीज़ मिरे इतने हुए की, वो हमसे ज़रा दूर-दूर ही रहें
जो बना था हमसफ़र मिरा वही भूल जाए तो मैं क्या करूँ
इज़्तिराब इतनी बढ़ गई, कि मैं न जी सकूँ न मैं मर सकूँ
मिरी अज़ीब सी है ये दास्तां कोई ना सुने तो मैं क्या करूँ
©prakash Jha
आरज़ू है कि उनसे मिलूँ, पर वो ना मिले तो मैं क्या करूँ
जिसे समझा मैं अपना नसीब वही दे दग़ा तो मैं क्या करूँ
एक रात की थी जुस्तजू, वो मिले मुझसे ऐसे हुबहू
मुझे क़फ़स में बिठा कर के वो चले गए तो मैं क्या करूँ
मशहूर वो तो बहुत हुए, मूझे छोड़ कर जब वो गए
जो ज़ख्म मैंने सी लिया वही दरक जाए तो मैं क्या करूँ