पिता का हाथ (साथ)
जिंदगी के मेले में, ख़ुद को खो चुका हूँ, मैं
हाथ पकड़ कर चला था, जिनका
वो हाथ, यहीं कहीं धक्का - मुक्की में,
छोड़ चुका हूँ, मैं।।
अब भटकता मैं, इस मेहफ़िल में,
पूछता इधर - उधर हर इक शक्स से।
देखा है, कोई उन मजबूत पकड़ को,
जो मुझको पकड़ कर रखा था।
ख़ुद कि लफरवाहि से ख़ुद को, खो चुका हूँ, मैं
जिंदगी के मेले में एक मज़बूत,
पकड़ खो चुका हूँ, मैं।।
गिरता - संभलता इधर - उधर ख़ुद को ढुंढता रहता हूँ।
इस जालिम जमाने में, कैसे जिंदा रहूँगा, मैं
ये सवाल , खुदसे पूछता रहता हूँ।।
©कवि विजय सर जी
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