पिंजरे में फँसे चुंहे की तरह,
छटपटाती हैं ख्वाहिशें,
जिम्मेदारी और मर्यादा की
चार दीवारी में क़ैद होकर।
पर ये चुंहे
सिर्फ औरत का प्रतीक हो
यह जरूरी नहीं,
पुरुष को भी देखा है मैंने
छटपटाते हुए।
©श्वेता अग्रवाल 'ग़ज़ल'
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